कविता से आगे

kawita se aage

श्याम परमार

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और अधिकश्याम परमार

    क्या होगा आख़िर इतनी घृणा से

    बात की तह तक किसी को लिए जाने से भी

    क्या होगा

    मुश्किल तो यह है, दिमाग़ी फीते की परतों में

    सिर्फ़ घृणा ही नहीं और भी बातें हैं

    उन्हें खोल भी दूँ तो क्या होगा

    यही तो होगा कि निकल आएगा कोई बंद सागर

    और उसमें सिर उठाती किश्तियाँ

    गीली रेत, ढेरों सीपियाँ

    तुम्हारे चेहरे पर टूटेंगी

    मेरे माथे के पास आँखों के कई आर्क लेंप

    जलते हैं

    जिनकी रोशनी बड़ी दूर तक दौड़ जाती है

    देखने से भी अधिक देख लेती है

    अख़बार का पन्ना नज़र के आगे

    जो फड़फड़ाता है हर सुबह

    नई बातें उछालता है

    जिन्हें शाम तक समेटता रहता है सारा देश

    शब्दों की क़दम मिलाकर चलती हुई पंक्तियों के नीचे

    मुझे कई और पंक्तियाँ नज़र आती हैं

    नीचे बहुत नीचे जिनके एक और फीता घूमता है

    उसमें बँधी ध्वनियों की छटपटाहट

    मेरे शरीर का कोई अंश निरंतर सुनता रहता है

    यह भी होता है कि हाथों की अनाम उँगलियाँ

    जाने कहाँ से निकलकर काली सुर्ख़ियों में

    घुस जाती हैं

    और अर्थ की अंतड़ियों में जमे हुए ज़हर को

    उनके पोर कुरेद कर ऊपर ले आते हैं

    मस्तिष्क की दबी हुई गठानों पर तब

    आग के शोले टकराते हैं

    जिनकी आँच में तुम्हारी ओढ़ी हुई चाल को

    मैं बहुत आसानी से पहचान लेता हूँ

    आग, आँच और पहचान की स्थितियों में

    मेरी कविता से और क्या चाहते हो मेरे दोस्त

    दर्द का जो छींटा अपनी छाती पर अब तक

    चमकता रहा

    उससे मेरा तिलक करने का इरादा छोड़ दो

    तुम्हें पता है मेरी कविता चिल्लाकर

    नारे लगाना नहीं जानती

    उसे मैं इशारों की कुतियाँ नहीं बना सकता

    उसके लिए मेरी चेतना में कोई कीड़ा

    कभी जन्म नहीं लेगा

    तुम्हारे दर्द की साँपिन को मेरा साँप

    अपने पास खींचेगा

    यों तो आज तुमसे कहीं ज्यादा पैने नखों ने

    मुझे अंदर से छीला है

    मेरे अस्तित्व को मेरे समय ने बार-बार रौंदा है

    कई टुकड़ों से तानी गई सभ्यता की रस्सी पर

    लगातार मेरे घावों का ख़ून गिरता है

    गहरी दरारों से उठाया जल

    इसी रस्सी से तो ऊपर पाया है पुरानी बाल्टियों में

    सड़ रहा है (अब)

    सफ़ेदी का चटक बूरा घुलेगा भी तो इसमें नहीं :

    घुलेगा नए पानी में

    (मगर तर्क से पानी नहीं बदला करते)

    तुम्हारे थान से फाड़े हुए कपड़ों से

    सिल पाएगी मेरे विचारों की क़मीज़ें

    कविता की नसों में दौड़ पाएगा

    तुम्हारे माप से ढाला हुआ लावा

    बात तो यों है, आक्रोश को हथियार बनाकर

    मैं टूटूँगा नहीं

    यह काम मैंने औरों को सौंप दिया है

    मुझे मालूम है उत्तेजना में चीज़ें साफ़ नहीं दीखती...

    क्रोध की हवा में जन्मे काँटों को

    अधूरे वाक्यों के लफ़ंगे आशय कहाँ तक कुचलेंगे

    कहाँ तक बातों के क़ैदी बिचौले ख़याल

    घावों का उपचार करेंगे

    जानने की कोशिश में

    और भी बातों के नक़ाब उतरते हैं

    दिमाग़ के किसी कोने में एक भी फीता

    समेटता जाता है

    उतरे हुए नक़ाबों के नक़्श :

    बात पर बात... बात पर बात

    कभी तो खुल पाएगी घृणा की कटोरी में पड़ी

    विष-गाँठ : शब्दों के सँपोले ग़ुंडे अर्थ

    सतह पर इतना अधिक आँखों में है कि प्रश्नों के पंजों ने

    निश्चय के कई रास्तों को दबोच रक्खा है

    निश्चय के नीचे और भी निश्चय के सच हैं

    जो नोचे से ऊपर आएँगे

    उनके लिए मैं कविता को कहो कितना खोलूँ

    बताओ, तुम्हारी समझ के मैदान में कितने हाथ लंबा उसे फैलाऊँ

    कविता के आगे की एक तासीर का मुझे एहसास होता है :

    कविता को कविता से और भी आगे ले आता है उसका अंदाज़...

    स्रोत :
    • पुस्तक : निषेध (पृष्ठ 102)
    • संपादक : जगदीश चतुर्वेदी
    • रचनाकार : श्याम परमार
    • प्रकाशन : ज्ञान भारती प्रकाशन
    • संस्करण : 1972

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