कवि

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मलयज

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और अधिकमलयज

    उन्होंने कविताएँ सुनाई अपने में

    डूबे हुए काँटों के जंगल

    जिसमें जगह-जगह शामें और सपने

    अटके हुए थे उन्होंने

    धक् धक् करती वह जगह दिखाई

    जहाँ होने का कुल अर्थ सिर्फ़ कुछ इशारों में

    ढल गया था

    पहाड़ के पहाड़ दरख़्त के दरख़्त

    तमाम सारे क्षितिजों को लपेटे

    ऊँचाइयाँ और गहराइयाँ

    अब सब एक मैदान में पस्त हो गए थे

    मंद मंद बुख़ार में जलते हुए

    पानी के झरने की आस में झरते हुए

    बूँद बूँद रिसते उन्होंने बरौनियों से

    धूल की किरकिराहट छूते हुए

    उम्र की वे फटेहाल सीढ़ियाँ दिखाईं

    जो पानी के सूखे कुंड तक

    उतर गई थीं

    किनारे पर

    पक्षी के डैने एक नीलापन कसे

    आँख की पुतलियों में ठहरे थे

    बिंबों के ऊपर की रंगीन परतें उघड़ चुकी थीं

    अनार के दानों की चुसी हुई पंक्ति

    गूदे के भीतर छिपा हुआ कसैला सत्य

    हिलते हुए दाँत-सा उभड़ आया था

    एक थुक्का फ़ज़ीहत की ज़िंदगी की आत्मीयता

    थक कर अपने पाँव ख़ुद दाब रही थी

    कहीं कोई आहट थी

    कविताएँ अपने आपके कंधे पर सिर रखे

    ऊँघ चली थीं

    एक सफ़ेद आलोक में दबा हुआ रंग

    कभी-कभी आँख खोल कर चौंक पड़ता था

    रंग की शोख़ियों के वे अंदाज़ वे घुलावटें

    कसे हुए अंगों में बजते हुए वे शब्द

    कहाँ गए?

    वे अलमस्त नाचते हुए घनेरे बादलों की

    सरसब्ज़ वादियों में छंद-छंद झरते

    झरने

    वे गुनगुन नदियाँ

    वह घास की सादगी में टँका आदिम सौंदर्य?

    सौंदर्य की चट्टान फोड़ कर निकलता

    यथार्थ का वह क्रूर कठोर पंजा

    एक हताश चेहरे के बालों में ठहरा हुआ

    मुझे याद है

    किस तरह उँगलियों के नाख़ून प्रतीकों को चींथ कर

    बिंबों को छेदते भावों को कुरेदते किस तरह

    सीधे मर्म को छलनी छलनी कर देते थे तेरे

    मुँह से निकली हुई आह

    किस तरह सीने से फूटती ख़ुशी का

    काव्यक्षण बन जाती थी

    एक अलग क्यारी में खिली हुई व्यक्ति की महत्ता

    अपनी विनम्रता में आने वाली पीढ़ियों की

    अगली संभावनाओं में कस जाती थी

    कैसे तू उड़ता था ज़मीन से

    अपने पंखों को तोल कर सदियों के ख़ून की गर्मी

    और दबाव अपनी रगों में महसूस करता

    ऊँचाई की ओर

    कैसे तू एक नाटक में अपने को खोलता मूँदता और पाता था

    उस नाटक में तू ही सूत्रधार था, तू ही अभिनेता, तू ही दर्शक

    एक मुजस्सिम नाटक

    हर बदलते दृश्य में वही का वही

    दुख के पके फोड़ों में ज़माने का ज़हर समोए

    सुख के लपकते शोलों में

    एक अदने घोंसले-सा सुलगता हुआ

    हर बार मरने में हर बार जीता पुनः पुनः

    मरने और जीने के लिए

    हर नाटक में

    एक ही राग एक ही आत्मा को चूम

    उठ उठ कर गिरता पड़ता उठता हुआ...

    स्रोत :
    • पुस्तक : अपने होने को अप्रकाशित करता हुआ (पृष्ठ 11)
    • रचनाकार : मलयज
    • प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
    • संस्करण : 1980

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