मुझे नज़र तो नहीं लग गई है!

mujhe nazar to nahin lag gai hai!

चमन लाल चमन

चमन लाल चमन

मुझे नज़र तो नहीं लग गई है!

चमन लाल चमन

और अधिकचमन लाल चमन

    उठाता मैं नज़र अपनी

    सारा आकाश

    दिप-दिप करता

    निर्जन खिल उठते नए आभरण पहनते उपवन

    जिस भी मकान को देखता

    उसमें अपना घर देखता और फूला समाता

    आशाओं के खिले फूलों का हर तरफ़ होता साम्राज्य

    लुभावने दृश्य मेरे वांछित रंगों में रंग जाते।

    देखा ज़रा ध्यान से...

    कहीं मुझको नज़र तो नहीं लगी

    फूलों के राजकुमार का

    गरेबाँ आँबल तक पहुँच गया है

    मेरा स्वभाव ठंडी आहों जैसा निर्मोही हो गया है।

    मेरी आँखें बुझे मन को ज़ाहिर करती हैं।

    अपने तो अजनबी दीखते हैं—

    महसूसता हूँ कि आत्मीयता के वृक्ष पर कुल्हाड़ा चल गया है।

    ऐसे में भला कैसे विश्वास करूँ कि

    मेरी आँखों में देखने की शक्ति बची है अभी

    मेरा छोटा-सा आकाश कितना शोभायमान था

    ज़रा देखो तो!

    यह बाज़ार अब बाज़ार जैसा नहीं दीखता,

    नाम अजनबी है।

    कोई किसी को नहीं पहचानता

    बस यूँ ही

    हर बात को रहस्यपूर्ण कहने की

    अकारण प्रथा चल पड़ी है।

    अब मैं भला कितने मुखौटे पहनकर

    सभाओं में जाऊँ?

    कहीं यह वितस्ता मेरे ही सामने से

    रास्ता काटकर तो नहीं बहेगी?

    और वो हारी पर्वत

    ईश्वर जाने किसके भाग जाए

    ज़मीन की यदि नाप-जोख होने लग जाए

    तो मेरी शरणस्थली सिकुड़ जाएगी

    आदेश मिलेगा मुझे

    मुझे पाँव की उँगलियों पर खड़ा रहना होगा

    ढह जाएँगे मेरे अधिकार

    आँगन और दीवारों पर हक़ जताने के

    मेरे अधिकारों की पोटली का चौराहे पर

    होगा भंडाफोड़।

    लाल चौक में खड़ा हूँ मैं

    नंग-धड़ंग

    क़हक़हे

    मेरे आसपास का मुँह चिढ़ाते हैं

    प्राचीन का अर्धपतन हो गया है।

    अब यह कैसे मदारी के हाथों में खिलौना हो

    दीपाधार ही टेढ़ा हो गया

    तो दीपक किसके सहारे टिकेगा?

    बिना छत के मकान है जिसमें

    मैं अपने अस्तित्व को समेटे बैठा हूँ

    मेरा शरीर

    बिना मालिक के कारख़ाना है,

    अंतर नहीं रहा दोनों में—

    मरना जीना मेरे लिए एक समान है।

    उठाकर हाथ माँग ही लेता कुछ

    पर नहीं रहा विश्वास माँगने पर भी

    गूँगा हूँ जैसे वरना

    लाखों बातें मेरी छाती को कुरेदती जा रही हैं

    समझता था मेरी

    अभिलाषा की डाली पुष्पित होगी

    जहाँ भी क़दम रखूँगा

    वहाँ अमृत की धारा फूटेगी

    ज़रा देखो तो

    कहीं मुझे नज़र तो नहीं लगी है!

    मुझे अपना शरीर वश में नहीं लगता

    लगता है किसी ने मेरे घर पर अधिकार जमाया है

    कोई मुझे प्रकाश दिखाए

    लगता है, मैं रास्ता भटक गया हूँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : उजला राजमार्ग (पृष्ठ 138)
    • संपादक : रतनलाल शांत
    • रचनाकार : चमन लाल चमन
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2005

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