मथता रहा मैं पानी ही

mathta raha main pani hi

सैयद रसूल पोंपुर

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मथता रहा मैं पानी ही

सैयद रसूल पोंपुर

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    मैं जो ज़रा सो के जागा

    जैसे पल भर में ही

    बीत गई हों शताब्दियाँ

    काले सफ़ेद सपने देखते हुए

    कितने उजले सुंदर स्वप्न

    संभावनाओं की सीमाओं से बहुत आगे

    और अर्थपूर्ण सय की इच्छा लिए

    मैंने अर्जित करना चाहा उन्हें

    मैंने समुद्रों पर बनाए सेतु

    कि वह आएगा

    वह मेरा प्रिय आएगा

    शीतल चाँदनी हो कि आग बरसाता सूर्य

    चंचल बादल हो कि घनी काली रात

    कोमल सिरहाने पर कोमल वक्षस्थल पर फेरे हाथ मैंने

    मेरी नज़रों से छलकते रहे जाम

    नंगी बातें बोला मैं

    कि चुप्पी के आवरण फटें

    कभी दिव्य वस्त्र पहने घूमा आकाश

    कभी पहुँचा धरती की तहों के बहुत नीचे

    पाताल

    पर क्या मिला,

    कुछ भी तो नहीं।

    रोज़े से रहा

    बहुत किया जप तप

    बहुत ढूँढ़ा उसे

    रहा वह तो अज्ञात का अज्ञात

    क्या है वह, पशु है, नर है या क्या कुछ

    लेकिन सपनों का क्या भरोसा!

    बहुरूपी बनकर अपने चेहरे ख़ुद मिटा दिए

    कितने मुखौटे खो दिए

    वो शक्लें अब कहाँ वापस लौट सकती हैं

    मेरे चेहरे पर

    जो चला गया लौटा है कब ?

    सपनों का सौदागर बनकर

    मैंने क्या-क्या नहीं बेचा?

    मैं अकिंचन ही रहा

    मुझ में नहीं सामर्थ्य

    क्या ख़रीदूँ अब क्या बेचूँ

    यों तो होता है स्वर्ग नरक कर्मों के अधीन

    पर मेरे सपनों का क्या कोई मूल्य नहीं?

    कुछ तो निकले फल मेरे भी सपनों का

    स्वर्ग में सही नरक में ही

    फैले आलोक

    जो समर्थ था

    छलकाता फिरा

    उसे क्या ग़म

    मैं सिर्फ़ पानी मथता रहा

    बटता रहा रेत की रस्सी

    बाँधता रहा हवा की गाँठें

    धुन डाले पहाड़

    निगले शोले

    सूरज सजे नगर मैंने जला दिए

    हिम डूबे शहरों की रक्षा बड़े जतन से की

    आग के दरिया पार कर लिए मैंने

    समंदरों को उलीच दिया हाथों की अंजलियाँ भर-भर

    नगर-नगर भटका

    चिल्ला-चिल्ला कर थका कि है कहीं कोई जो सुने मेरी आवाज़

    अरे मुझे शाबाशी दो

    मैं तो तब जागा था

    लाखों बरस तब से हुए

    वो बिखेर सका था इसे तो बिखेर दिया चारों ओर

    हुआ नहीं मुझसे तो मैं कुछ सँभाल नहीं सका

    मैंने बस पानी मथ डाला

    बस देखता रहा स्वप्न

    बयान भी नहीं कर सका स्वप्न अपने

    कुछ नहीं हुआ मुझसे

    बस सपने बुनता रहा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : उजला राजमार्ग (पृष्ठ 158)
    • संपादक : रतनलाल शांत
    • रचनाकार : सैयद रसूल पोंपुर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2005

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