गड़रिया

gaDariya

चल पड़ा गड़रिया दूब भरी घाटियों की ओर घुमाता हुआ अपनी लठिया को

चल पड़ा गड़रिया दूब भरी घाटियों की ओर

निकला लड़ने कुश्ती वर्षा और कीचड़ के साथ, नहीं खाता भय

आँधी से अँधियारी से, विद्युत और तूफ़ान से—चल पड़ा गड़रिया

चढ़ा पठारों पर यात्रा के लिए एक उत्साह लिए दौड़ता हुआ बबरशेर की भाँति

पसीने से तर-ब-तर चिलचिलाती धूप में—चल पड़ा गड़रिया

घिर गया कहीं वर्षा में, चकराया कहीं सिर इसका ओलों की मार में

उड़ा लिया कहीं इसे पश्चिमी झक्कड़ ने―चल पड़ा गड़रिया

गिर पड़ा औधे मुँह पश्चिमी झक्कड़ में और जल इसे बहा ले गया एक नौका की भाँति

हुआ घायल खा-खाकर धचके, झटके—चल पड़ा गड़रिया

जो छिपा नीचे चट्टानों के सँभालने अपने आप को

मर-मर के मानो कई बार जन्म लिया इसने—चल पड़ा गड़रिया

बढ़ता गया आगे ही आगे किस चाव से पड़ा नहीं बल इसकी कमर में

यात्रा के उत्साह में स्थिर है जा रहा—चल पड़ा गड़रिया

तंग नहीं हुआ आघातों से, इसके पग में बल है और तीव्र गति

क्योंकि निकला है शैशव ही से सफ़र करने—चल पड़ा गड़रिया

यात्रा के इस उत्साह पर निछावर हैं इसके साथी आरंभ से ही

यह सूर्य चाँद तारे और यह वायु—चल पड़ा गड़रिया

कहा यह शशि ने जलाऊँगा तेरे लिये मशाले तारों की अँधियारी रातों में

और प्रज्वलित करूँगा पथ तेरे लिए चाँदनी रातों में—चल पड़ा गड़रिया...

कहा यह रवि ने देना उलाहना मुझे कि जलाया तुझे मैंने पथ पर कड़कती धूप से

(विश्वास रखो) पहुँचाऊँगा ठंडक (दूब भरी घाटियों में) हिम की शीतल वायु से तेरे

शरीर को—चल पड़ा गड़रिया

कहा यह वायु ने सफ़र के ताप में हारना नहीं दम, करूँगी ठंडा तेरे रोम

रोम के पसीने को—चल पड़ा गडरिया

आया गड़रिया नंगे पैर करता छिड़काव पैरों के रक्त का शूल भरी झाड़ियों में से

सोनमर्ग, केरन और द्रावा की घाटियों में से―चल पड़ा गडरिया

आया हाँकता हुआ हाँफती हुई भेड़ों और बकरियों को तीखी चट्टानों पर से

टीलों पर से, और हुआ प्रवेश इसका एक मीर शिकारी की भाँति दूब भरी घाटी में—

चल पड़ा गड़रिया

लगी पिघलने जमी हुई प्रीत हिम-खंडों की इसी के प्रेम में

और खिल उठा माथा पर्वतों और पहाड़ो का—चल पड़ा गड़रिया

आया स्वय भाग्य का शिल्पी मानो बुनता हुआ चादरें प्रपात की

क्योंकि सूचना थी आने की नंग-धड़ंग गड़रिये की—चल पड़ा गड़रिया...

बिछ गया फर्श मखमल का स्थान-स्थान पर हरियाली का क्योंकि आया है दूर से

अतिथि एक थका हारा— चल पड़ा गड़रिया...

आई नदी भी इसी के अनुराग से गरजती हुई उछलती हुई

पांचाल पर्वत के हिम शिखरों से परंतु जल रही देह इसकी थकान से—चल पड़ा गड़रिया

बन में इसके मीत इसकी सखियाँ यही भेड़ें यही बकरियाँ यहीं गायें

बिताता रहता दिन साथ इन्हीं के—चल पड़ा गड़रिया

बैठ गया चोटी पर जैसे एक वाइज़ (उपदेशक) जो उतरा हो सातवें आकाश से

और मानो बना रहा हो भेद भाग्य के—चल पड़ा गड़रिया

झूम उठा बन सारा इसकी मुरली की तान से और सुन रहे हैं कान देकर

यह चीड़ और यह देवदार मानो एक नया यौवन आया हो पेड़ों में—

चल पड़ा गड़रिया...

चढ़ा सेनापति टीलों पर मानो सेना लेकर अपने रेवड़ की, घुमाता हुआ

अपनी लठिया को

और तोड़ता हुआ गौरव पर्वत का—चल पड़ा गड़रिया

मुँह में पानी भर आया भेड़ियों और चीतों के देखकर भेड़-बकरियों को

उनकी गरज से सारा वन काँप उठा—चल पड़ा गड़रिया

फिर बैठ गया गड़रिया एक अलाव जलाकर रखवाली करता

एक पिता की भाँति अपने बच्चों की ओर से लड़ता रहा कुश्ती रीछों से—

चल पड़ा गड़रिया

जब आया चैन-सा निश्चिंतता-सी और हुई मस्त दूब भरी घाटी में

यह भेड़ें और बकरियाँ, आई याद गड़रिये को अपने घर की—

चल पड़ा गड़रिया

चल पड़ा था प्रेम की घाटियों की ओर जब फूल खिल रहे थे वसंत में

और लौटा घर को अब पतझड में, पहुँचा घर जब मानो फिर से जन्म लिया

माँ की कोख से―चल पड़ा गड़रिया

आया कवि “फानी भी प्रेम की घाटी में सुनने संगीत दर्द के साज का

आया लय में सुनकर तान किसी मुरली की—चल पड़ा गड़रिया।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 209)
  • रचनाकार : पीताम्बर नाथ दर फानी
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 1956

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