जब गाँठ पड़ती है मन में

और अकुलाता हूँ

तो मन चाहता है

तोड़ दूँ सलाख़ें पिंजरे की

पा लूँ मुक्ति

उडूँ आकाश में

अंग-अंग तानूँ

स्वच्छ हवा में फैलाऊँ

अपने पंख।

इन्हीं ख़ुशदिल ख़यालों में

एक उड़ती हुई तितली

मुझे भटका देती है

और मैं फिर हो जाता हूँ क़ैद

उसी पिंजरानुमा कोठरी में

फिर से हो जाता हूँ आत्मलीन

महसूसता हुआ

अंतस में घुटे नग्मों की गुनगुनाहट

अनसुने संगीत का नाद

थिरकने लगते हैं मेरे पाँव

और फिर लहूलुहान हो जाते हैं

मेरा अंहकार

चीरता है वक्ष अपना

खो जाता है मुझसे

उड़ने का विश्वास

मुक्त गगन की पुकार

हवा का ताज़ा एहसास!

मेरा ताना-बाना

सब बिखरा-बिखरा आज

फिर-फिर समेटने की कोशिश

रात

करवटें बदलता रहता हूँ

जिस घास की चटाई पर

उसकी चुभन के निशान

उभर आए हैं मेरी पसलिय़ों पर भी

चूर-चूर हो गए हैं मेरे सब अंग

उस बंद कोठरी में

सूनी आँखों से

मैं ताकता रहता हूँ

और दोहराता रहता हूँ

पता नहीं क्या-क्या

पर यह रात है

कि ख़त्म नहीं होती

और मैं भी सोचता रहता हूँ

जाने क्या-क्या...

(मूल शीर्षक : ब्रम)

स्रोत :
  • पुस्तक : उजला राजमार्ग (पृष्ठ 151)
  • संपादक : रतनलाल शांत
  • रचनाकार : ग़ुलाम मोहम्मद ग़मगीन
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2005

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