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काँटा

kanta

आनंद बहादुर

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और अधिकआनंद बहादुर

    बहुत दिनों बाद

    पैर में एक काँटा चुभा

    मैंने चौंक कर देखा

    यह कैसे हुआ?

    बहुत साल हुए

    पिछले काँटे के गड़े

    मैं काँटों को गया भूल

    आज चुभा तो याद आया

    काँटा भी अपना ही स्वजन है

    उससे मुलाक़ात के

    कितने ही वाकए याद आए

    तलुवों के लहूलहान होकर पकने के

    मीठे दर्द भरे

    और माँ दीदी दादी नानी के

    उसको निकालने के

    आँख भर आई

    कैसे भूला मैं इतने प्यारे दोस्त को

    दादी ने एक बार

    बूढ़ी उँगलियों से टटोल-टटोल कर

    काँटे को निकाला था

    याद आई पनियल आँखों देखी

    दादी की झुर्रियों की दुनिया

    और उनके मर्म को नहीं समझने की

    अपनी निष्ठुरता की

    जैसे निकालती थी दादी

    मैंने भी टटोल टटोल कर

    धीरे-धीरे दबा-दबा कर उसे निकाला

    हर बार टटोलने पर

    वह थोड़ा-सा चुभता

    हर बार दबाने पर

    वह थोड़ा-थोड़ा-सा

    सरककर बाहर आता

    इतने धीरे-धीरे कि लगा

    वह कभी निकल पाएगा

    मगर अंत में वह आया

    जैसे बच्चा आता है

    माँ की कोख से निकलकर गोद में

    अरे, इतना छोटा-सा काँटा!

    मैंने काँटे को सावधानी से काग़ज़ में लपेटा

    और अलमारी में पड़ी

    उस बहुत पुरानी किताब के

    पन्नों के बीच रख दिया

    जहाँ पहले से ही

    किसी भूले हुए का दिया

    एक बहुत पुराना मुरझाया हुआ

    गुलाब रखा है

    स्रोत :
    • रचनाकार : आनंद बहादुर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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