घर-घर की तपस्विनी के प्रति

ghar ghar ki tapaswini ke prati

अनुवाद : हिरण्मय

कुवेंपु

कुवेंपु

घर-घर की तपस्विनी के प्रति

कुवेंपु

और अधिककुवेंपु

    घर-घर की तू ही गृह-श्री

    तेरा नाम अनाम है गृहस्त्री।

    हे दिव्य सामान्या,

    हे भव्य देवमान्या,

    चिरंतन अकीर्ति वन्या,

    अन्नपूर्णा, अहं-शून्या,

    नमन तुझे नित्य धन्या।

    राष्ट्र-सभा अध्यक्षिणी

    वह श्रीमती सरोजिनी,

    झाँसी रानी लक्ष्मीबाई

    उन सबकी महामाता

    तू ही गर्भ, तू ही साँस,

    तुझसे ही उनका नाम

    सुरक्षा समिति में

    विजयलक्ष्मी की वक्तृता

    आध्यात्मिक संपत्ति की

    तेरी विशालता के सम्मुख

    राजनीति की अल्पता है।

    पाकशाला ही पर्णशाला,

    आग चूल्हे की, मख-ज्वाला।

    अनवरत कठिन तपस्या,

    पूर्णमासी भी अमावस्या।

    तो भी अदीनास्या

    तू ही हमारी धैर्य, आशा।

    तेरे पद की करूँ पूजा,

    पूत धवल कविता, लज्जा।

    आग, धुआँ, धुआँ, आग।

    कालिख, वासी, वासी, कालिख।

    तब भी निश्शंकिनी

    चौधराणी महीयसी।

    तू ही गृहिणी, तू ही रति,

    हृदय-हृदय की सुमन-आरती :

    तू हो तो, लोक की गति

    दुर्गति, मृत्यु, विधि ही गति।

    रक्षा कर, नित्य

    संसार के रस-रूप की

    चिर-तापसी, सुर-रूप-सी,

    यति सती शिवा, पार्वती।

    तुझे लगे कभी

    पुरुषों की वह बीमारी :

    ख्याति पाना है बड़ी

    जग की एक बीमारी।

    देहली के उस पार तू जाएगी

    तो उसके इस पार आलोक नहीं

    नाम की भूखी तू हो जाएगी

    तो नहीं आशा हमारे जीने की।

    तुझसे ही दबी पड़ी है

    जन-जन की कुसंस्कृति :

    तुझसे ही दबी पड़ी है

    मन-मन की असंस्कृति

    रामायण-महाभारत

    शाकुंतल-कादंबरी

    बहु कवियों की रस-सृष्टि की

    बहुकलाओं की रस-दृष्टि की

    तुष्टि तथा पुष्टि के लिए

    तू ही देवी है :

    वह सीता महाश्वेता

    सावित्री-दमयंती

    चाहे जो भी हो

    तेरे समान तेरा बड़प्पन है

    सचमुच लासानी।

    तुझसे ही बनता है, जीता है

    हमारा यह संसार

    हे दिव्या, सामान्या,

    घर-घर की उर्मिला,

    गृहिणी, कुलीना, देवी, माँ,

    नाम-रहित महिला,

    तेरे चरणों में नमन

    करता है यह अबोध शिशु

    जो मोहित है झूठे नाम से।

    सुख की खान, शांति की आगार,

    शिव-मंदिर सुंदरता की

    सामान्या की श्री-निधि,

    तुझे लगे उनकी

    कीर्ति या प्रशंसा शनि,

    गृह-गृह-गृह की तपस्विनी।

    मोटे अक्षर अख़बारों के

    और चित्रों की चुलबुलाहट से

    विचलित हो, हे जननी,

    सुंदर रह, स्नेहमयी रह,

    सत्य-मत पर सत्य-पथ पर

    हमें चला, हे प्रिय-दर्शिनी

    हे मनु-कुल-कल्याणी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 125)
    • रचनाकार : कुवेंपु
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1956

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