आशीर्वाद

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अंबिकातनयदत्त

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अंबिकातनयदत्त

और अधिकअंबिकातनयदत्त

    आम्र मल्लिका मिल एक होकर

    आँखों के लिए एक दृश्य बन

    ज्योतित कलश के सुंदर गोपुर!

    ममता समता से निर्मित मंडप!

    ओ! पुरातन वंश-वृक्ष!

    कोंपल बन, फल बन, कच्चा फल बन, गीत बन,

    डंठल के लिए फल बन, अमृत बीज की रक्षा करके

    पके पत्तो को गिराते हुए नित्य

    कोपल सिर उठाकर

    फिर नृत्य करे तुम्हारी शाखोपशाखा में—

    एक ही जाति में अनेक गुच्छे बनकर

    फूलों में, फलों में और अनेक होकर

    (कल के जीवन के परे एक

    परसों का देश है

    वह अपूर्वोद्भव का पुण्य क्षेत्र!)

    उस देवबीज के लिए, भागवत् तेज़ के लिए

    जो विहित रस है उस सु-साहित्य के लिए

    सहायक बन, उचित बन, खाद बन...

    भूत मिट्टी है।

    वर्तमान पेड़ है!

    उस भविष्य की बात मुझे क्यों?

    फिर भी मानता करूँगा

    अरुणोदय में हालक्कि के कलरव के समय

    बच्चों का क्रीड़ा-स्थान सम्मुख रख

    उसे देख खिलने वालों का पड़ोस एक हो—

    उन्हें लोरी गाए

    प्रभाती सुनाए

    जगाने वालों का समूह पीछे हो

    ऐसे वन-उपवन में

    जो है राहु-केतु उनके शरारती होठों की पकड़ से दूर

    स्पर्श कर सकने वाले स्थान से

    कन्नड़ की माँ की मायके के

    गंध वारुण!

    वे नंदी वसव!

    गिरि-शिखर पर उड़ने वाले गरुड़ सिंह!

    जन्म लेकर आने दो, चौंसठ कला मिलने पर

    इस चतुर्मुख की भुवनेश्वरी के विद्यारण्य।

    सातवें अंतस् में

    सुंदर दृश्य के देखने पर

    घन कृपा के घन में

    यज्ञात् भवति पर्जन्यः

    पर्जन्यात् अन्नसंभवः

    अन्नात् भवंति भूतानि

    सर्वभूतेषु येनैकम् अव्ययम् ईक्षते...

    कमल मण्डल के ऊर्ध्व मुख के आकूल

    नैर्मल्य में तुम्हारे गंध की सुरभि

    रविताप को शांत करने वाली शीतलता—

    मलयानिल हुई!

    पृथ्वी का हृदयार्पण गर्भ मंदिर में मिलकर

    कलश-स्तन होकर, देखो बाहर पिला रहा

    पवन की झीनी अंचल की ओट में

    नदी आई, लहर आई,

    दूध होकर, पक्षी-पंक्ति होकर

    इसी प्रकार अनुग्रह करो हे माँ

    माँ के दूध का ऋण धो डालना उचित है?

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 129)
    • रचनाकार : अंबिकातनयदत्त
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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