रोम में काम्पो दि फ़्योरी पर
जैतून और नीबू की टोकरियाँ
अँगूरी छिड़की हुई बटियाँ
फूलों की किरचें।
गुलाबी समुद्री खाद्य
बेचने वाले मेज़ों पर डालते हैं
मुट्ठी भर काले अंगूर
जो गिरते हैं आडुओं की कोमल त्वचा पर।
यहाँ इसी चौक पर
ज्योर्दानो ब्रूनो जलाया गया था,
जल्लाद ने चिता की आग जलाई
जिज्ञासु भीड़ से घिरे हुए।
और जैसे ही लपटें शांत हुई
मधुशालाएँ फिर से खचाखच भरी हुई
जैतून और नीबू की टोकरियाँ
बेचने वाले अपने सिरों पर लिए हुए।
मैंने याद किया काम्पो दि फ़्योरी को
वार्षावा में चरख हिंडोला के बग़ल में,
एक सुखद वसंती शाम को
ज़िंदादिल संगीत की धुनें सुनते हुए।
यहूदी बस्ती की, दीवार के ऊपर धमाके
ज़िंदादिल धुन द्वारा सुन्न किए गए
और जोड़े उड़े
ऊपर साफ़ आकाश में।
जब-तब जलते मकानों से हवा
ले आई काली पतंगे,
उन्होंने हवा में चिनगारियाँ लोक लीं
जो चरख हिंडोला पर सवार थे।
लड़कियों की फ्रॉकें खोल दीं
जलते मकानों की इस हवा ने,
मनमौजी भीड़ें हँसती रहीं
एक सुंदर इतवार को वार्षावा के।
कोई पढ़ सकता है इसमें एक सीख
कि वार्षावा या रोम के लोग
सौदा-सुलुफ़ करते, खेलते, प्रेम करते हैं
शहीदों की चिताओं की बग़ल से गुज़रते हुए।
कोई और सीख पढ़ेगा
मानवीय मुद्दों की क्षणभंगुरता के बारे,
भूलने के बारे में जो बढ़ता है
इससे पहले कि लपट शांत हो।
हालाँकि तब मैंने सोचा था
उनके अकेलेपन के बारे में जो मरते हैं।
इस तथ्य के बारे में, कि जब ज़्यार्दानो
तख़्ते पर चढ़ा था,
उसे मानवीय भाषा में नहीं मिला
एक भी शब्द
मानवता को अलविदा कहने के लिए
मानवता को, जो बची रहती है।
पहले ही वे शराब पीने भाग रहे थे,
सफ़ेद तारामीन देखते, बेचने,
जैतून और नीबू की टोकरियाँ
वे ले जा रहे थे शोर-मचाती भीड़ में।
और वह पहले ही उन से दूर हो गया था,
जैसे सदियाँ बीत जाएँगी
और उन्होंने एक पल के लिए प्रतीक्षा की
आग से उसके पलायन की।
और वे जो अकेले मरते हैं
संसार के लिए पहले ही विस्मृत,
हमारी भाषा उनके लिए अजनबी हो गई
एक पुराने ग्रह की भाषा की तरह।
फिर जब सब कुछ एक क़िस्सा बन जाएगा
और फिर कई बरसों बाद
नई काम्पो दि फ़्योरी के ऊपर
विरोध सुलगाएगा एक कवि का एक शब्द।
- पुस्तक : दरवाज़े में कोई चाबी नहीं (पृष्ठ 105)
- संपादक : वंशी माहेश्वरी
- रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक अशोक वाजपेयी, रेनाता चेकाल्स्का
- प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
- संस्करण : 2020
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