कहीं कुछ हो गया है

kahin kuch ho gaya hai

तेजसिंह जोधा

तेजसिंह जोधा

कहीं कुछ हो गया है

तेजसिंह जोधा

और अधिकतेजसिंह जोधा

    एक

    इस गाँव में कहीं कुछ हो गया है

    हो गया है

    ऐसा लगता है

    जैसे पावस की अनाड़ी दोपहर

    चौकी वाले पीपल से नहीं

    नीचे ज़मीन पर सोए बूढ़ों की

    देह से निकली / उतरकर गहरी-गहरी

    खाँसी, राम निकल गया...

    ठाकुर को चिंता है / उसकी बैठक के आगे से

    गुज़रता वक़्त / नंगे सिर निकल गया

    पगड़ी भूल गया

    वैसे जानने को गाँव के गंडक भी जानते हैं

    कि सूर्यास्त होते ही दारू पीकर

    पेंशन पर आया सूबेदार

    क्यों बोलता है उनकी बोली / और क्यों और कैसे

    चौधरी जीभ पर गुड़ फेरकर / लोगों को फेरता है—

    पता है मास्टर को / लेकिन, वह क्यों रखे पता

    उसे पता रखने को दूसरी बातें ही कितनी

    जैसे—लड़कों की बहनों के नाम क्या

    कुँवारी या ब्याही हुई / ब्याही तो

    ससुराल कहाँ / पति का धंधा क्या

    इस गाँव में कहीं कुछ हो गया है

    सचमुच ही हो गया है

    कि चूंकली का आए बरस नाते जाना

    और मोहल्ले वाले अंधे घीसू का

    'राम-राम' करते माँगने आना

    दोनों वैसे के वैसे हैं

    वैसी ही है / घीसू से जुड़ी

    दूधिया दाँतों की अनुप्रासी चुहल

    —घीसू बाबा राम-राम / राम-राम

    —तुम्हारी बेटी हमारे गाँव

    हम भेजें, हो कैसा ही काम

    कैसा ही काम

    ठक-ठक (लाठी की आवाज़)

    कैसा ही काम / ठक-ठक

    सोचता हूँ / क्या बदला

    बदलने को तो सब कुछ बदल सकता है

    बदल सकता / ढोलन का स्वाद

    और बनिए का पाद-

    वक़्त की बात है / बीड़ी का टोटा कान में ही रखें

    और कोने में ही डालें, फ़र्क़ क्या पड़ता है

    स्कूली चुहलबंदियाँ तो रखेंगी ही

    सड़क पर / वैसे ही पत्थर

    तारीख़ें लिखेंगी / प्याऊ पर

    वैसे ही गालियाँ / और पढ़ाई उसी तरह बनाएगी

    रास्ते पर / मूत्र से मुल्क की ज्योग्राफ़ी

    स्सी... (होठों पर उँगली)

    चुप रहो / चलने दो

    बिगड़े हुए फाग को 'जन-गण-मन' करने का ज़िक्र

    और लिखी हुई पट्टी तोड़ने की फ़िक्र / ज़रूरी नहीं

    कि पढ़ाए कोई नक्सल-फक्सलवाद

    पढ़ सकते हैं बच्चे अपने-आप

    इस गाँव में कहीं कुछ हो गया है।

    हो गया है / हो गया है।

    दो

    इस गाँव में कहीं कुछ हो गया है।

    कुछ कुछ

    सवेरे-सवेरे / हर-घर से / यह गाँव

    एक बासी उबासी जैसे निकलता है

    और पसर जाता है / और फिर बजने लगता है दिन

    अचानक बज उठी सीटी की तरह

    हाँड़ियों में उफान / आँगन में बुहारा

    बिलोने में झेरनी

    भेड़-बकरी-गाय-बैल-टोरड़ियों की निकासी

    और छाती के धचके गिनती / गाँव की चक्की

    सारा कुछ जाना-पहचाना / ये सवेरा होना जाना-पहचाना

    सवेरे की पहली चिलम पीकर

    खाँसी में उलझा बेरा / बग़ल दूर, बिखरी

    धुआँ निकालती ढाणियों की मुँडेरें

    वैसी की वैसी / लेकिन ये क्या / क्या है ये

    इन सब पर तैर रहे हैं गिद्ध / शमसानी गिद्ध

    भभके खाती ओटी हुई साँसों के गिद्ध

    कहीं कुछ हो गया है—गिद्ध

    कुछ-न-कुछ हो गया है—गिद्ध

    खिड़की से देखने की हिम्मत नहीं होती / नहीं होती

    जाने क्यों / अनदेखा / अनसोचा

    कुछ होने का भय, वहम

    नस-नस में उतरता जा रहा है

    इधर-उधर की चीज़ों का

    वहशी हो-हो / फिरना-घिरना तिबारे में

    निश्चय ही नतीजा हो सकता है

    समय के गणित के / आँकड़े, उलट-पलट जाने का

    शायद सिरहाने चाय नहीं पहुँची

    उगते हुए दिन को गालियाँ देना

    हाथ आई सहूलियत के नाम

    कई बार माल छिन जाना तसल्ली देता है

    हल्का होने की ज़रूरत पर

    इस गाँव में कहीं कुछ हो गया है

    हो गया है

    अभी तक वह लड़की नहीं दिखी

    जो किसी के भी गाँव छोड़कर जाते वक़्त

    रो दिया करती थी / और वह, वह लड़की भी नहीं

    जो गाँव के यौवन को / सीमा के सुनसान में

    महीन-महीन शब्दों से नहीं / शब्दों के पीछे छुपी

    एक उतावली हाँफ से / अर्थ दिया करती थी।

    लोग कहते हैं

    कि इस गाँव में एक जेठू हुआ करता था

    जो किसी के भाई / किसी के भतीजा

    किसी के चाचा / और किसी के मामा

    तो किसी के / मौसा लगा करता था,

    लेकिन जाने क्यों वह जब से कर्नल हुआ

    यह गाँव भीतर-ही-भीतर समझ गया

    कि यह अब सभी के कर्नल ही लगने लगा है

    शायद अपनी अनपढ़ी बीवी के लिए भी

    इस गाँव में कहीं कुछ हो गया है

    हो गया है

    तीन

    चेतें! / चेतें!

    इन ठंडे पहरों को देखें

    इससे पहले कि वन बावरिये

    सूरज को खूँटी में लटकाए

    सीमा-सीमा ही सरक जाएँ / कई बातें जान लें

    जान लें कि पटेल के हाथ का ढेरा

    अपने-आप नहीं घूमता / घुमाना पड़ता है।

    सुनो / सुनो / सचेत रहो

    ओखली में पड़ते मूसल

    दलिया दलती घट्टियाँ / और कुंडियों पर

    चीं-चीं करती चिड़ियों का संगीत

    तुम्हारे लिए नहीं / समय की

    रंगों में भटकने के लिए है

    अकारथ है कबूतरों की गुटरगूँ में

    खोजना हिस्सा / उधर देखो / देखो

    तुम्हारे एलबम के लिए / हो सकता है

    एक ही पोज़ काफ़ी / उन कंडे बीनती किशोरियों का

    क्योंकि, क्योंकि मैं जानता हूँ

    तुम्हारी समझ से बाहर है / वह भूख की भाषा

    जो कुनिए नायक की आँखों में

    सूखी रोटी और सर्द औरत तक

    एक सरीखी पागल होकर / फफोलों की तरह उफनती है,

    इस गाँव में कहीं कुछ हो गया है / हो गया है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक भारतीय कविता संचयन राजस्थानी (1950-2010) (पृष्ठ 97)
    • रचनाकार : तेजसिंह जोधा
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2012

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