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कहि दिअ अहीं

kahi dia ahin

ज्योत्स्ना चन्द्रम्

अन्य

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ज्योत्स्ना चन्द्रम्

कहि दिअ अहीं

ज्योत्स्ना चन्द्रम्

और अधिकज्योत्स्ना चन्द्रम्

    नारी-मन

    टूटल क्षण-क्षण

    बाँटल कण-कण

    धीर-धीर, क्षणहि उन्मन

    दुर्गम-दुर्बोध बनल कौखन

    कौखन सरला, मृदु-हासमयी

    हे नारी,

    की अहाँ?

    कहि दिअ अहीं!

    निर्मात्री-संसृति केर आदि अहीं

    शक्ति अहीं, सिद्धि अहीं

    निरुपाय-निराश्रित अमरबेलि

    परिवार-धुरी, वा धुरी-केन्द्रित

    पौलहुँ जय-सुख पराजय मे

    हे नारी,

    की अहाँ?

    कहि दिअ अहीं!

    मेह-उदासी सँ ओंगठल

    आँखि अहँक उन्मन-उन्मन

    स्वप्नक छटपटी सँ बेधल मन

    जोखए स्व केर समिधा सदिखन

    तदपि,

    बलिप्रदानक छागर सन इच्छा

    चीत्कार करए आकुल अनुखन

    हे नारी,

    की अहाँ?

    कहि दिअ अहीं!

    ठाढ़ बाले टा सँ

    बनए नहि घर चिक्कन

    माथक ऊपर छत रहने टा

    इति नहि होबए जीवन अप्पन

    ने

    आबए समटि मानुष-जनम

    पाँच आँगुरक बनल कओर मे

    हे नारी,

    की अहाँ?

    कहि दिअ अहीं!

    निश्चयतः,

    एहि सँ फराक सेहो अछि एक संसार

    जतए अछि इच्छा-भावना,

    अधिकार सँ युक्त मुदित परिवेश...

    तखन किए अहींपर मुखर होइछ

    सकल तंत्र वर्जनाक?

    हे नारी,

    की अहाँ?

    कहि दिअ अहीं!

    स्रोत :
    • पुस्तक : समग्र ज्योत्स्ना (पृष्ठ 41)
    • संपादक : विभूति आनन्द
    • रचनाकार : ज्योत्स्ना चन्द्रम्
    • प्रकाशन : नवारम्भ
    • संस्करण : 2017

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