जिन्नकथा-1

jinnaktha 1

अनुराधा महापात्र

अनुराधा महापात्र

जिन्नकथा-1

अनुराधा महापात्र

और अधिकअनुराधा महापात्र

    कोई फागुन नहीं, पूर्णिमा-रहित फागुन की

    इस शहर में शून्यता है - किसी भी विरह का भान तक नहीं

    घर फ़्लैट है - सघन हरियाली नहीं...

    दुत्कारे जाते हैं पागल, भिखारी यहाँ मरते हैं बेमौत

    तब भी बच्चा और आदमी का चेहरा है

    तुम्हारी पूर्णिमा लेकर चुपचाप हूँ

    दुःख की गहराइयों का अर्थ है

    पार्क सर्कस का आकाश देख कर पा रहा हूँ टेर—

    आकाश और डूबा चाँद - मँडराता पेड़

    घूमता हुआ दरवेश।

    आज की रात - किसके लिए

    निरीक्षण करता है - नीम

    हस्पताल का बेड, ज्योतिष-विश्वासी लेखक

    पूरा फुटपाथ स्टेशन गाँव

    बचपन यौवन, बुढ़ापे का ज्ञान और ऐसा कि सारा अभिज्ञान

    काम आएगा केवल रचना संग्रह में?

    प्राण का सारा प्यार ऑफ़सेट प्रेस में बदल जाएगा।

    हे दरवेश, हे अकाल बसंत पूर्णिमा

    मुझे करो देशांतर - प्रेस, प्रकृति-विहीन

    ये सब भीड़ की निष्ठुरता, पैसा, प्रसिद्धि, ईर्ष्या

    मुझे देशांतर करो।

    मातृत्वहीन स्त्री और पुरुष के बीच द्वंद्व से मुझे मुक्ति दो

    प्रेमविहीन प्रसिद्धि, क्रांतिकारी और विख्यात कवि की दीवार से

    मुक्त करो मुझे -

    हरित करो दूर्वादान को, कपालेश्वरी के तीर पर पानी की सहजता से

    हे दरवेश, यदि जितने तालाब और पेड़ हैं वे हृदय समान हो जाएँ

    एवं विरह और पूर्णता हृदय के समान हो जाए

    तो मैं कभी भी मनुष्य के शोक और विरह के

    अंधकार और पूर्णिमा के अनंत धागों में लिपटा

    प्राचीन पेड़ बनना, पीर मज़ार बनने को राज़ी हूँ

    हे दरवेश

    बनने को इक्कीसवीं सदी का आधुनिक

    हृदय की आँख को थिर करना

    और नहीं

    साल दर साल श्रेष्ठ संकलन में छपना

    मनुष्य को प्यार करना, जल-प्रवाह में करना स्नान

    डूब की तरह हृदय के मान-सम्मान को मानना

    अब और नहीं -

    मज़ाक में और नहीं फ़ालतू चले जाना

    और नहीं

    दुहाई दरवेश

    हमें पुरातन करो... आनंदित करो

    देशांतर करो...

    स्रोत :
    • पुस्तक : शब्द सेतु (दस भारतीय कवि) (पृष्ठ 93)
    • संपादक : गिरधर राठी
    • रचनाकार : कवयित्री के साथ अनुवादक समीरबरन नंदी और प्रयाग शुक्ल
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1994

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