मैं जेल की काल-कोठरी में रखी बर्फ़ की एक सिल्ली हूँ
तेज़ धूप में रखने से भी न पिघले ऐसी ठोस और सख़्त
नित एक नए क़ैदी को हाथ-पैर बाँधकर
मुझ पर लिटाया जाता है
वह बहुत छटपटाता है, पर मुँह से एक हर्फ़ तक नहीं निकालता
और कुछ देर में ही मर जाता है
आख़िर में दूसरे दिन सिपाही उसे उठा जाते हैं
मैं ठंडी, स्थितप्रज्ञ पड़ी रहती हूँ
उसके न क़बूले गए गुनाह मुझमें समा जाते हैं
मैं ऐसी ही अकथ्य, अधिकाधिक ज़िद्दी बनती जाती हूँ
मुझमें से एक क़तरा बर्फ़ भी
पानी बनकर नहीं बहती
कारागृह की फ़ौलादी सलाखों के पीछे
सख़्त पहरे के बीच मैं पड़ी हूँ
जेलर अपना पैर मुझ पर टिका कर, थका हुआ खड़ा है
उसके जूतों की कीलें मुझे नोचती हैं
फिर एक नया क़ैदी आकर मुझ पर लेटता है
मरता है, लेटता है
मरता है, लेटता है…
- रचनाकार : मनीषा जोषी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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