जंगली भैंस

jangli bhains

दीपक मिश्र

दीपक मिश्र

जंगली भैंस

दीपक मिश्र

और अधिकदीपक मिश्र

    बहुत मामूली बात

    वह दृश्य कि मैदान में कोई भैंस

    खड़ी है कहीं, साक्षात यमदूत-सी

    अथवा यमराज-सी और

    धरती को देख रही अपने ढंग से

    या कुछ खोजती है

    और बीच-बीच में अपनी पूँछ पटकती

    ख़ुशी में या खीझ में

    और फिर मुँह फिरा

    अधपकी घास वाली

    कर्कश पीठ पर, फिर फेंकती होगी

    निस्तेज दृष्टि की छाया आती-जाती दुनिया पर।

    याद करो मैदान पर

    कहीं और पाँव फैलाए

    और फिर हाफपैंट की कमर से ऊपर

    ढाँप रंग-बिरंगे दोनों हाथ फाँसे हैं

    छाती और पेट के बीच

    पीठ दिखाती बालू की सेज-सी

    जिसकी देह पर

    पतालक सूर्य से शिथिल हाथ लहराते

    मैदान के छाँवदार अंश पर

    फिर शून्य प्रतिबिम्ब बन लीन हो जाता

    भैंस की भींगी झुकी आँख में।

    वह जो बच्चा वहाँ अजीब वीरता के

    तमाशे में दृश्यमान हो रहा।

    वह क्या हमारे किसी का

    बचपन का नाम है जो शायद दनाई और

    उसके जिद्दी मन की छाँव

    उलट जाती भैंस की मृत्यु

    काली पुतलियों के काँच पर

    और क़दम-क़दम पर वह जाती आगे

    छूने को अँधेरे-सी काली पूँछ का गुच्छा।

    अब मधुराव रे-रे कहकर

    अपने स्वभाव ढंग में मना करें

    “हे दनाई! अरणा भैंस तक जाना

    नहीं कभी

    पर मधुराव! आपका उपदेश

    सुनाई देता मुझे

    किसी तुषारावृत पर्वत शिखर पर

    कोई ऋषि पुकारते और

    तराई के जंगल में किसी पक्षी के

    मधुर स्वर की प्रतिध्वनि उछल रही

    पेड़ से पेड़ और वह ऐसा वन

    जहाँ हिंस्र पशु कभी आया नहीं,

    या आने की संभावना भी नहीं।

    दनाई को पता चला कि वह आवाज़ झूठी

    और अमृत वचन डाब के पानी-सा मधुर

    जलते समय उसके दुःख की दुपहर भी

    बीमार दुपहर या विकृत सायाह्न।

    दनाई! तुम क्या जान सके

    कैसे सनसनाता चला गया तेरा बचपन

    और कहाँ गायब हो गया तेरा बेडौल यौवन,

    बूढ़ी भैंस के माथे की तरह

    कैसे खल्वाट हो गया तेरा सिर

    और उदास नज़र निमंत्रण करती

    आँखें तेरी कैसे बन गई

    दो हंडी माँड रे दनाई?

    तेरी देह की महक लगती

    अरणा भैंस की तेज वन्य गंध-सी

    और तेरे चारों ओर घेरे है भैंसों का दल

    जिनकी सूँ-साँ साँस में

    सतर्क क़दम शाही मृत्यु आती वैरागी पोशाक में

    और उसके अति पुराने तंबूरे के तार में

    बजता वही साधारण स्वर—

    आ.. आ... रे दनाई”

    बालापन में मैदान में पड़ी थी छाँव

    वह भी मेरी छाँव

    कोमल मृत्यु की

    सुराग सेज में लिए थे जो फूलों की छाँव

    वह भी मेरी छाँव थी—

    तपन भरी मृत्यु की;

    अब जो कतरा लिए है बूढ़े की छाँव

    वह भी मेरी छाँव-नीरव मृत्यु की

    उस अरणा भैंस की

    जिसे छोड़ भला कोई दनाई कभी जन्म ले पाता?

    उस भैंस की आँख में कभी नहीं आती नींद

    सदा रहे वह ताकती

    हालाँकि समय आने पर

    सो जाता भोला दनाई।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 161)
    • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
    • रचनाकार : दीपक मिश्र
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2009

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