1

सुत महर्षि के साथ गए थे

कोसल; उस दिन संध्या को

उटजवनी में बैठी सीता

धारे भारी चिंता को।

2

फुल्ल शिरीष-प्रसारित डालें

भूषित रम्य वितान बनी;

आसन-पाट सती का, नीचे

नील हरी तृणराजि बनी।

3

सूरज का छिप जाना, भू में

स्वयं जुन्हाई भर जाना,

जान पाई भूदेवी निज

वहाँ अकेली रह जाना।

4

पुलक-कुमुद हृद में खिलवाते

तमसानिल से संचालित

वनराजी थी चंद्र ज्योति में

रूपाकृत सी प्रतिभासित।

5

वन मल्ली से मारुत-गति में

उड़ते सुमनों से लसते,

घनवेणी के कुंतल में थे

जुगनू गण जो लगते।

6

घुँघराले वे केश घने तब

परिशोभित थे होते त्यों,

तरुराजी में लघु छायापथ

दीख निशा में पड़ता ज्यों।

7

अंशुक किसलय भर से देवी

तन को ढाँके बैठी थी;

निज ऊरू पर रख टहनी सी

बाँहें, रमणी बैठी थी।

8

शून्य दृष्टि थे रहते लोचन

अविकच अर्ध निमीलित ही;

वायु विताड़ित परुष लटों के

टकराते भी अविचल ही।

9

अलसांगी थी अविचल सीधे

बैठी, यद्यपि नतांगी थी;

शिथिल कभी हो अनियत मारुत

सी वह साँसें भरती थी।

10

देवी मन में अविरत गहरा

लहराता चिंता सागर

निर्मल चारु कपोल तटों पर

ले आता था भावलहर।

11

विह्वल मन को वश करने का

मार्ग पाकर कातर बन,

मनस्विनी थी करती मन में

स्वगत रूप चिंतन भाषण।

12

अनियत सब कुछ; भिन्न दशाएँ

आती; त्यों ही ढलतीं हा!

मनुज तड़पता जाने किसको;

मर्म जाना जगती का।

13

तिरता हो ज्यों रस कण, यव ज्यों

भुनता हो, त्यों मम मानस

तीव्र कभी, फिर मंथर गति में

चंचल होता पीड़ा वश।

14

याद मुझे हैं वे जगति के

ठाट बढ़ाते सुख दिन भी;

दुर्विधि मुख के वंचक हासों

जैसे उनका विलयन भी।

15

ढलता तापद ग्रीष्म, भुवन में

वर्षा होती अनुवत्सर;

झड़ते पत्र सभी द्रुम, लदते

सुमनों से, फिर हरियाकर।

16

दुख के अवसर बहुल मृगों में;

क्षण में पर, वह टल जाता;

अभिमान हेतु केवल मानव

अंत हीन पीड़ा पाता।

17

मेरा कंधा वाम वृथा है

अब भी कँपता, कीड़ा ज्यों;

भटकूँ माँग भोग कभी मैं,

निज छायानुग बाला ज्यों।

18

मुनि कृत काव्य मनोहर सुनते

मनुकुल पति वे आज सही,

पछताए हों; पहचाना हों

निज तनयों को निश्चय ही।

19

पतिरागज प्रिय भाव स्वयं ही

यद्यपि गए हैं छूट नहीं,

ज्यों प्रतिनाद श्रवण में त्यों वे

होते मन में रूढ़ नहीं।

20

क्षण का विरह विदारे मन को,

प्रणय प्रवधित था

आज वही है सोया लेकिन,

सिर उठा मंडलि जैसे।

21

इंद्रिय तोषक कुछ भावों के

नष्ट स्वयं हो जाने से,

दयनीय दशा पाई मन ने

गत पारावत पिंजड़े से।

कुमारन आशान के मलयालम काव्य ‘चिंताविष्टा सीता’

के आरंभिक 21 छंद

स्रोत :
  • पुस्तक : सीता
  • रचनाकार : कुमारन आशान
  • प्रकाशन : केरल हिंदी साहित्य मंडल
  • संस्करण : 1977

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