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हरियाली

hariyali

जनमीत

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जनमीत

हरियाली

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और अधिकजनमीत

    अपनी उम्र के मरुस्थल में से

    मैं निकल रहा था

    मेरे पाँवों में लपटें थीं

    रोम-रोम जल रहा था

    मैं मरुस्थल होता जा रहा था।

    हरियाली!

    तुम नख़लिस्तान बनकर

    दी दिखाई

    और ओस की बूँद बनी

    गिरी एहसास पर मेरे

    जीवन के इस पड़ाव पर

    रुक गया हूँ मैं

    सदा के वास्ते

    एकमात्र तेरे भरोसे।

    हरियाली!

    तू प्रकृति है

    यह चमत्कार है प्रकृति का

    कि मरुस्थल

    नख़लिस्तान में बदल गया है

    मेरे भीतर का ज्वालामुखी

    शांत हुआ है

    मेरे भीतर

    जो मानव मर गया था

    उसने जन्म लिया है फिर एक बार।

    हरियाली!

    तूने जो मुझमें

    सपनों के बीज बोए

    वे उगेंगे

    विकसित होकर खिलेंगे

    ये पेड़ बनेंगे

    फैल जाएँगे

    बोलने, गाने लगेंगे।

    हरियाली !

    उन पेड़ों की शाखाओं पर

    बैठकर

    कोयलें, गीत गाने वाली

    बुलबुलें चहचहाने वाली हैं

    जुगनू टिमटिमाने वाले हैं

    तितलियाँ लहलहाने वाली हैं।

    हरियाली!

    उन पेड़ों पर

    महक को साम्राज्य जताना है

    इच्छाओं के फूल खिलने हैं

    उन्हें चमकना है

    और मेरे जीवन के आँगन

    जन्मेंगे स्वप्न, मात्र स्वप्न।

    हरियाली!

    तुम प्रकृति हो,

    तूने रचा है

    नया इतिहास,

    मेरे जीवन का।

    हरियाली!

    तुम सृजक हो,

    और आज का जनमीत,

    तुम्हारी सर्जना है,

    सृजनकर्ता के चरण कमलों पर

    मैं शीश झुकाता हूँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 454)
    • संपादक : सुतिंदर सिंह नूर
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2014

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