हरा

hara

सौम्य मालवीय

और अधिकसौम्य मालवीय

    कितने-कितने रूपों में है

    मेरे सामने हरा

    हरा बढ़ता हुआ आहिस्ता-आहिस्ता नीले की तरफ़

    के उसे थाम लिया है

    धूमिल नारंगी के आग्रह ने और उलझा दिया है

    उलझा कर उसे समय बना दिया है

    वह जो ठहरा हुआ है

    आसमान के एक नीरव कोने में

    हरा पेड़ का हरा

    धीर-गंभीर स्वर में मौन है

    कोई परिंदा देह तोड़ता है तो जैसे

    गहरी हरी झील एक तन्मय अंतराल के बाद कुछ कहती है

    हरा अपने किनारे तोड़ कर बहता हुआ अतीत में

    फिर आता हुआ वापस कुछ लिए हुए

    जैसे समुद्री हरा

    लेकर आता हुआ सीपियाँ और सीपियों का अतीत

    और धरती की कुछ उम्र

    वह उम्र जिसमें हम-तुम नहीं हैं

    बस धरती है और उसका अबाध हरापन

    वह हरा

    जो अब, कुछ उदास जंगलों के खम्भित अँधियारों में टपक रहा है

    हरा, नसों की वेदना का हरा

    वह नसें जो ख़ुद को बुज़ुर्ग दरख़्तों की जड़ें समझती हैं

    और बस उखड़ना नहीं चाहतीं

    हरा किसी नवजात के शरीर पर उपटा हुआ

    जैसे उसके माथे पर

    उसकी नन्ही पीठ पर, तलुओं पर, हरी महीन डोरियाँ

    जैसे कोख की दूब

    क्या किसी जंगल से निकल कर आया है ये?

    इसकी स्निग्ध देह से वनस्पतियों की बू आती है

    क्या हरा जन्मदायी है

    क्या यह रंग नहीं समय है

    मुझे भी कुछ दिनों से आईना देखने पर

    अपनी उम्र नहीं

    आईने पर उगी घास नज़र आती है!

    स्रोत :
    • रचनाकार : सौम्य मालवीय
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

    संबंधित विषय

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए