हाँडी

hanDi

आत्मा रंजन

और अधिकआत्मा रंजन

    काठ की हाँडी

    एक बार ही चढ़ती है

    जानती हो तुम

    मंज़ूर नहीं था तुम्हें शायद

    यूँ एक बार चढ़ना

    और जल जाना निरर्थक

    इसलिए चुन ली तुमने

    एक धातु उम्र

    धातु को मिला फिर

    एक रूप एक आकार

    हाँडी, पतीली, कुकर, कड़ाही जैसा

    मैं जानना चाहता हूँ

    हाँडी होने के अर्थ

    तान देती है जो ख़ुद को लपटों पर

    और जलने को

    बदल देती है पकने में

    सच-सच बताना

    क्या रिश्ता है तुम्हारा इस हाँडी से

    माँजती हो इसे रोज़

    चमकाती हो गुनगुनाते हुए

    और छोड़ देती हो

    उसका एक हिस्सा

    जलने की जागीर-सा

    ख़ामोशी से

    कोई औपचारिक-सा ख़ून का रिश्ता मात्र

    तो नहीं जान पड़ता

    गुनगुनाते लगती है यह भी

    तुम्हारे संग एक लय में

    खुदबुदाने लगती है

    तुम्हारी कड़छी और छुवन मात्र से

    बिखेरने लगती है महक

    उगलने लगती है

    स्वाद के रहस्य

    खीझती नहीं हो कभी भी इस पर

    साझा करती है यह तुम्हारे संग

    चढ़ पाने का दुख

    और तुम इसके संग

    भरे मन और ख़ामोश निगाहों से

    सच मैं जानना चाहता हूँ

    कैसा है यह रिश्ता।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पगडंडियाँ गवाह हैं (पृष्ठ 11)
    • रचनाकार : आत्मा रंजन
    • प्रकाशन : अंतिका प्रकाशन
    • संस्करण : 2011

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