गुरुदेव की पुण्यभूमि

gurudew ki punybhumi

रामविलास शर्मा

रामविलास शर्मा

गुरुदेव की पुण्यभूमि

रामविलास शर्मा

और अधिकरामविलास शर्मा

    यह शस्य श्यामला वसुंधरा है, जिसे देख कर

    कवि ने मन में स्वर्ग रचा था सुंदर।

    यह पुण्यभूमि है, जिसे देख कर

    आंदोलित हो उठता था कवि का भावाकुल अंतर।

    वे भरे धान के खेत यहीं थे, जिन्हें देख कर

    साँझ-सवेरे फूटे थे कवि के स्वर।

    इस बंग-भूमि से ही जग को संदेश दिया था

    कवि ने : ‘अजर अमर है मानव-जीवन!'

    इस बंग-भूमि से कवि ने घोषित किया—

    'क्षुद्र है मानव-द्वारा, मानव का उत्पीड़न?’

    बर्बर फ़ासिस्तवाद को यही चुनौती दी;

    साम्राज्यवाद से युद्ध किया आजीवन!

    इस शस्य-श्यामला वसुंधरा पर

    क्रूर प्रेत-सी घिर आई किस विभीषिका की छाया,

    उस अजर अमर जीवन पर यह विनाश की छाया,

    किसकी दारुण सर्वग्रासिनी माया;

    इस पुण्यभूमि में तीस हज़ार युवतियों ने

    क्यों वेश्यालय में जाकर आश्रय पाया?

    उन भरे धान के खेतों में दिन-रात भूख,

    बस भूख महामारी का आकुल क्रंदन!

    हड्डी-हड्डी में सुलग रही है आग भूख की;

    सुलग रहा है भीतर-भीतर रक्तहीन मानव-तन;

    पट गया अधजली लाशों से कविगुरु का प्रिय

    यह हरा-भरा नंदन वन!

    भाई-भाई से जुदा चिता पर लड़ते हैं

    भाई-भाई, दो भीरु श्वान-से कायर!

    लाखों की रक़में काट रहे हैं, काट रहे हैं

    गले करोड़ों के, छिप-छिप कर कायर!

    सिर पर सरकार मौत-सी बेदम बैठी है,

    चुपचाप मौत-सी पस्त निकम्मी कायर!

    कायर, वह जो नेता बनता था, चला गया,

    मिल गया लुटेरों की सेना में, कायर।

    कायर, जो भी मुँह देख रहा हो,

    चीनी जनता के बर्बर हत्यारों का, वह कायर।

    लाखों को मरते देख रहा है

    धरे हाथ पर हाथ नपुंसक नौजवान, वह कायर।

    वह पुण्यभूमि है मानवता के कविगुरु की,

    प्राचीन तपोवन-सी ही सुंदर, पावन!

    बलिदान त्याग की भूमि—

    अभी नि:स्वार्थ युवक हैं, जीवित है अब भी

    सामाजिक जीवन।

    हड्डी-हड्डी है चूर, जला सब ख़ून;

    अडिग है फिर भी सूखे तन में इस्पाती मन!

    दानव ने आज चुनौती दी है नवयुवकों को

    ‘आओ, यह पहाड़-सा भार उठाओ!

    दुर्भिक्ष महामारी से, दुष्ट लुटेरों से,

    आओ, यह अपना प्यारा देश बचाओ।'

    नौजवान भारत के!

    गरम लहू को आज चुनौती है; सब मिल कर

    भार उठाओ!

    दिन-रात यही हैरानी, भूली भूख-प्यास,—

    वीरान हो यह प्यारा शांति-निकेतन!

    यह हरा-भरा बंगाल!

    यों ही उजड़ जाए इस भूख महामारी से

    शांति-निकेतन!

    उस नीच नगूची को मिले यह रवि ठाकुर का,

    प्राणों से भी प्यारा शांति-निकेतन!

    बंगाल, कसौटी देशभक्ति की,

    आज यहीं पर केंद्रित है सारे भारत का जीवन।

    बंगाल देश का सिंहद्वार!

    प्रहरी है केवल मृत्यु, और जनता करती है अनशन!

    बंगाल चिता पर जलता है!

    क्या बचा रहेगा देश? बचेगा किस स्वार्थी का जीवन?

    स्रोत :
    • पुस्तक : तार सप्तक (पृष्ठ 201)
    • संपादक : अज्ञेय
    • रचनाकार : रामविलास शर्मा
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2011

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