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गिद्ध

giddh

बलराम कांवट

और अधिकबलराम कांवट

    गाँव से आधा कोस दूर

    खेतों में

    जहाँ हल चलाते थे पिता

    स्कूल से लौटकर

    मैं सूनी दुपहरियों में

    उनकी रोटी लेकर जाता था

    वहाँ सुनसान रास्ते में

    एक नाला पड़ता था

    नाले के पास

    बड़ का पेड़

    मृत मवेशियों को

    उधर ही घसीटकर आते थे ग्रामीण

    उधर ही

    कंकालों के चहुँओर

    कूदते मँडराते दिखाई देते थे मुझे

    गिद्धों के झुंड

    मुझे गिद्धों से इतना डर लगता था

    कंकालों से

    इतना डर लगता था

    कि उन्हें देखकर

    मैं दूर ही ठिठका खड़ा रहता था

    आषाढ़ की कड़ी धूप में

    और सारी दिशाओं से

    किसी साथ आने जाने वाले की

    घंटों-घंटों

    प्रतीक्षा करता था

    जब दूर कहीं बैलों को हाँकता आता

    कोई किसान

    अपनी मवेशियों के साथ आता कोई ग्वाला

    कोई घास काटने आई स्त्री

    पगडंडियों पर दिखाई देती

    तो उनकी छांव पकड़कर पार करता था मैं यह रास्ता

    और हर बार

    तीसरे पहर तक पहुँचती थी

    एक भूखे

    किसान की रोटियाँ

    यह बचपन की बात थी

    बचपन अब कहीं नहीं है

    जिस पगडंडी पर चलने से

    मैं ख़ौफ़ खाता था

    अब पक्की सड़क निकली है

    वहाँ धरती को चीरती

    जिस खेत में

    पिता हल चलाते थे

    वहाँ कितने ही जीवों का घर उजाड़कर

    हमने नया घर बनवाया है

    वह बड़ का पेड़

    जो कभी गिद्धों का घर था

    अब भी किसी वृद्ध-सा खड़ा है

    वहीं धूप में अकेला

    लेकिन उसकी गोद में

    अब कोई गिद्ध नहीं है

    अब नहीं है कहीं कोई गिद्ध

    यह सोचते हुए

    मैं जब-जब गुजरता हूँ

    इस नए रास्ते से

    मुझे पहले से बहुत ज़्यादा डर लगता है!

    स्रोत :
    • रचनाकार : बलराम कांवट
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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