घर एक दुःस्वप्न

ghar ek duःswapn

सुजाता

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घर एक दुःस्वप्न

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    घर एक दुःस्वप्न

    दूर तक फैली है रेत...

    खोदती हूँ देर तक

    नहीं बना पाती एक गड्ढा भी अपने लिए

    खोदने के लिए ज़रा-सी जगह डालती हूँ हाथ

    भर जाती है उसमें भी रेत!

    मैं ज़िंदा हूँ मरीचिकाओं के लिए?

    या खाद के लिए?

    इश्क़ के छिलके भी तो नहीं हैं बायोडिग्रेडेबल!

    सिर्फ़ प्यार के लिए जीना रेत हो जाना है एक दिन

    कुछ नहीं बचता उस दिन तक

    बचा रहता है घर रेत के ऊपर भी

    प्रेम!

    तुम्हें आना था पाँवों के नीचे साझा मंज़िल की ओर जाती राहों में

    हो जाना था कभी सर पर सवार साँस लेने के लिए रुकते ही

    होंठों पर पिघलना था पहले कौर से पहले

    विचारों के उलझने के बाद उगना था आँखों में सूरजमुखी जैसा...

    रात से पहले तुम्हें आना था भटकती शामों की तरह

    आना था कई रतजगों के बाद पाए साझा सपनों की तरह

    तुम्हें नही आना था बवंडर जैसे

    नहीं होना था शाश्वत रेत!

    कपड़े फटकारती हूँ तो मिलती है वह

    जींस के मुड़े हुए पायचे खोलने से झरती है

    किताबों के पन्नों के बीच दिखती है महीन पंक्ति-सी

    मैं आवाज़ लगाती हूँ और गले में रेत भर जाती है

    रेत के नीचे दबे हैं सारे नक़्शे उन पुलों के जिन्हें

    साथ पार करने से पहले हमीं को बनाना था

    चलती हूँ

    तो धँस जाती हूँ

    हथेलियों से दिन भर हटाती हूँ रेत बनाती हूँ जगह

    बनाती जाती हूँ जगह और भरती जाती है रेत!

    स्रोत :
    • रचनाकार : सुजाता
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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