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ग़ालिब

ghalib

अरुण देव

अन्य

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अरुण देव

ग़ालिब

अरुण देव

और अधिकअरुण देव

    ग़ालिब पर सोचते हुए

    वह दिल्ली याद आई

    जिसके गली-कूचे अब वैसे थे

    आसमान में परिंदों के लिए कम थी जगह

    उड़कर जाते कि लौट आते हैं अभी

    शब-ओ-रोज़ होने वाले बाज़ीच:-ए-अत्फ़ाल में

    मसरूफ़ थी हर सुबह

    इब्न-ए-मरियम थे

    दुःख की दवा थी

    इस शोर में

    एक आवाज़ थी बल्लीमारान से उठती हुई

    लेते थे जिसमें अदब के आदमक़द बुत

    गहरी-गहरी साँसे

    हिंदुस्तान की नब्ज़ में पिघलने लगता था पारा, सीसा, आबनूस

    दीद-ए-तर से टपकता था लहू

    उस ख़स्ता के ‘अंदाज़-ए-बयाँ और’ में वह क्या था

    कि हिलने लगी थी बूढ़े बादशाह की दाढ़ी

    थकी सल्तनत की सीढ़ियाँ उतरते उसकी फीकी हँसी के

    मालूम कितने अर्थ थे

    उसने देखा था

    तमाशा देखने वालों का तमाशा

    उसकी करुणा में डूबी आँखों में हिज़्र का लंबा रेगिस्तान था

    जिसके विसाल के लिए उम्र भी कम ठहरी

    दिल्ली और कलकत्ता के बीच कहीं खो गई थी

    उसकी रोटी

    टपकती हुई छत और ढहे हुए महलसरे को

    क़लम की नोक से सँभाले

    वह जिद्दी शाइर ताउम्र जद्द-ओ-जहद करता रहा कि

    निकल आए

    फ़िरदौस और दोज़ख़ को मिलाकर भी

    ज़िंदगी के लिए थोड़ी और गुंजाइश

    स्रोत :
    • रचनाकार : अरुण देव
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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