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हम द्याखति रहब तुम्हारि राह।

पाटेन झीलइ, काटेन पहाड़,

पहुँचेन सवितन के आर-पार।

मुलु अब तक तुमका पायन,

तनि करतिउ हमरउ घर उज्यार।

बसि जिय मा बाकी याक चाह।

हम द्याखति रहब तुम्हारि राह॥1

हमरी गति ते भूचालु भवा,

धरती होइगइ सब धुआँधार।

नखतन-नखतन मा ढूंढ़ि थकेन,

ना पायेन तुम्हरा नाउ—चार।

खोजेन सबियाँ सागर अथाह।

हम द्याखति रहब तुम्हारि राह॥2

मेवा-मिसरी सब लाइ धरेन,

स्वाचा मिलिहउ करिबा निसार।

मुलु सुना भाव के भूखे तुम,

होइगे बाधक मन के विकार।

अब खुदइ मिलउ तउ मिटइ दाह।

हम द्याखति रहव तुम्हारि राह॥3

कुछ कहइँ फूल की महकनि मा,

तुम मिलउ सकारे कबहुँ साँझ।

कुछ कहइँ मेघ बनि तुम घूमउ,

बरसउ दीनन के खेत माँझ।

सूखे खेतन मा कोन बाह।

हम द्याखति रहब तुम्हारि राह॥4

स्रोत :
  • पुस्तक : घास के घरउँदे (पृष्ठ 111)
  • रचनाकार : श्यामसुंदर मिश्र ‘मधुप’
  • प्रकाशन : आत्माराम एण्ड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली
  • संस्करण : 1991

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