अन्हार पटरी बदलैत अछि
हमरा सभ सूतल रहैत छी।
हमरा सभक मनमे कोन चिट्ठी रहैए जे
सोझाँमे मुस्कियाइत हमरालोकनिक उपलक्ष्य
माने हमरा सभक मित्र
मिझाकऽ उदास भऽ जाइए
हमरा सभ ओहि चिट्ठीमे हेरायल रहैत छी
अन्हार पटरी बदलैत अछि।
शब्दक चीत्कार कोनो बम-विस्फोट नहि होइछ
बम-बिस्फोट मनुक्खक वस्तुओ नहि होइछ
शब्दसँ घबड़ाइए कऽ अन्हार आरो गाढ़
आरो गाढ़ होबऽ चाहैत अछि
एही चेष्टामे पटरी बदलि लैत अछि
तेँ शब्दकेँ चिकरि कऽ नहि, बाजिकऽ देखू
सुनू, कहू, सुनू आ गाउ
लगातार एतेक नै सूतै जाउ
जे अहाँक आरम्भिक राति
अहाँक मोनमे संगमरमरक स्मारक बनि जाय
अहाँक गर्दनिक कारी फूलक माला बनि जाय
किएक तँ अन्हार पटरी बदलैत अछि
आ लोक सूतल रहेत अछि।
सुतनाइ आवश्यक होइछ
मुदा अपन घरेमे। खुंखार जंगलमे
जागबे होइछ काज आ प्रेम सेहो
किएक तँ हम सूतैत छी अपन घरमे
पपनी खुजैए भयावह खुंखार आवाज सभसँ
भरल महाजंगलमे।
ई केहन थिक नापरवाही
हमरा सभ सुतबा-काल अपने घरमे निन्न पड़ैत छी
आ जगाओल जाइत छी एकटा जंगलमे
हमरालोकनिक स्वर जानवर सभक सुरमे मिलि
जाइत अछि।
हमरालोकनिक लाचारी जंगली काँट सभमे
घेरा जाइत अछि
अन्हार
ग्लोब केँ महासमुद सभमे डुमा कऽ
बाँटि लैत अछि
हमरा सभकेँ बुझा-सुझा कऽ पोसुआ बना लेबाक वास्ते
किछु-किछु कहि दैत अछि आ,
पटरी सभ बदलैत अछि।
मुदा यैह एकटा संतोष आ खुशीक
बात अछि जे
चिड़ै चुनमुन्नी सभक लेल कोनो
पैघ राति नहि छैक
रोज अहल भोरे एकरा सभक गीत
जंगलकेँ झकझोरि कऽ
चेतवैत अछि
आ पैघ महत्वाकांक्षा आ तागतिसँ
अन्हारकेँ अपन चराउर
बनबैत अछि।
- पुस्तक : समकालीन मैथिली कविता (पृष्ठ 86)
- संपादक : भीमनाथ झा, मोहन भारद्वाज
- रचनाकार : गंगेश गुंजन
- प्रकाशन : साहित्य अकादमी
- संस्करण : 1988
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