गाँव का दक्खिन हो गया है 'आख़िरी आदमी'
ganw ka dakhkhin ho gaya hai akhiri adami
जितेंद्र श्रीवास्तव
Jitendra Srivastav

गाँव का दक्खिन हो गया है 'आख़िरी आदमी'
ganw ka dakhkhin ho gaya hai akhiri adami
Jitendra Srivastav
जितेंद्र श्रीवास्तव
और अधिकजितेंद्र श्रीवास्तव
मौसम बदल रहा है
गाँव में सुगबुगाहट है चुनाव की
अब प्रधानी में बहुत पैसा है
खड़ंजा हो बाँध हो बिजली हो बाढ़ हो अकाल हो
प्रधान की पौ-बारह रहती है
अब भी दफ़्तरों में टंगती हैं
महात्मा गांधी और डॉक्टर अंबेडकर की तस्वीरें
पर कोई ताकना भी नहीं चाहता
महात्मा गांधी के 'आख़िरी आदमी' की तरफ़
डॉक्टर अंबेडकर के सपनों की तरफ़
इन दिनों लोकतंत्र में
गाँव का दक्खिन हो गया है 'आख़िरी आदमी'
पिछली बार पाँच लोग मारे गए थे
प्रधानी के चुनाव में
निकलने नहीं दिया था जबरों ने
दलितों को उनकी बस्ती से
उनके वोट खा गए थे वे
सरकारी योजनाओं की तरह
किसान बदहाल हैं
मर रहे हैं भरी जवानी में
जो बचे हैं उनकी जेबें इस क़दर ख़ाली हैं
कि वे भर नहीं सकते बच्चों की फीस
उनके घर में नहीं हैं
किसी के बदन पर साबूत कपड़े
लड़कियाँ भी महफ़ूज़ नहीं हैं
गाँवों में
अब फिर चुनाव सिर पर है
धीरे-धीरे गर्म हो रही है हवा
लोग अकन रहे हैं एक दूसरे की कानाफूसी
मैदान में उम्मीदवार भी कई हैं
पर 'आख़िरी आदमी' को
“कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती।”
स्रोत:

- लेखक: जितेंद्र श्रीवास्तव
-
- प्रकाशक: हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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