एक विद्रूपम्

ek widrupam

श्याम परमार

श्याम परमार

एक विद्रूपम्

श्याम परमार

और अधिकश्याम परमार

    सीपियों में पिघलता सोनपाखी...

    विष :

    नुचे, असहाय मलबे की दरारों से

    उपक आती आँख का विक्षिप्त नीला दर्द—

    सर्द आगों का मरोड़े मारता काला धुआँ,

    महसूस करता हूँ धनी बेचैनियाँ;

    नंगी हवाओं में

    सिर मुड़ाए लटक आता

    गुल बदन आकाश...

    चीरती ऊँचाइयों में टँगे पागल वृक्ष

    जिनकी सख़्त डालों से लिपट जातीं

    गंध की बेहोशियाँ

    बेतरतीब, ज्यामितिक लकीरें बहकतीं,

    मुँहज़ोर गलियों के घने उलझे बिछौने

    फफूँदी कोढ़ के छत्ते

    निहत्ते

    मग़रूर सेहुँड़ की भुजाओं से

    निकलते सुर्ख़ नाख़ूनी शिकंजे...

    मेरे गले तक पहुँच कर

    ये सब रुक गए हैं।

    त्रिकोणों को काटती (चिमगादड़ें) :

    आँखों की क़तारें

    चिपचिपाते काग़ज़ों के ढेर-सी

    गड़म़डाती लड़खड़ाती,

    भभक कर जल उठी-सी आग।

    नाराज़ लपटों से उछल जाता

    फिर वही नीली नज़र का घाव

    आवारा

    अँधेरे की काँखती कमज़ोरियों में

    चीख़ का एक सिलसिला

    बदमिजाज़ी से भरी बर्रों-सा

    डगालों से छिटक पड़ता,

    फूल गुच्छों से टपक जाता ज़हर

    फिसल जाती हरी काई की सतह

    —बैंगनी पलकें;

    नज़र का ज़ख़्म

    भागता पीछे,

    काँपने लगती

    विचारों की धुनकती रूई

    तड़कती, तमावृत फाँकों से निकल आती

    गिजगिजे प्रश्नों की अधजली केंचुल। बारंबार

    बचना चाहता हूँ

    इनकी करारी जुम्बिशों से

    लेना चाहता हूँ श्वास खुलकर

    हवाओं के समंदर में

    अहम् के एक टुकड़े के तले

    तराशे खंड-सा

    अपने से अलग होना चाहता हूँ

    ताकि मेरा स्वत्व आदम की तरह

    जंगलों में निरावृत होकर

    दौड़ पाए। बर्नली पीठ से

    चिपटी घिनौनी आँख की

    छोटी मछलियाँ

    उँगलियों के जाल में ले,

    हथेली पर विछाये

    ख़ूब देखी हैं

    चिढ़ कर सहज उनके मुँह नोचे हैं।

    नीले दर्द की आँखें बहुत हँसती हैं, हवा की

    मुक्त पालों पर चढ़ी

    अंधी आँधियों में बेख़बर

    भटके हुए बेकार चिंदे-सी

    चक्कर मारकर

    टूटे कंगूरों पर उतरती हैं।

    बहुत आहिस्ते। बढ़ाकर हाथ

    मैंने उन्हें खींचा, मुट्ठियों में दाबकर

    फिर तोड़ डाला

    कबूतर की नर्म गरदन-सा

    मोड़ डाला...

    कस गया-सा अंग सारा

    तीखे तार-टुकड़ों से

    बिंध गईं सब हड्डियाँ भीतर,

    अराजक आदम अतल का

    मौत से भय’ता

    अपनी लार को ख़ुद ही उगलकर

    सुख जुटाता, संचयन के तुष्ट

    प्रतिमानों से जड़ित स्वत्व को

    अंदर धँसाता, घोलता

    श्वास लेता रेशमी कीड़ा :

    मरणासन्न, बोदा...

    आत्मभोगी, लुब्ध, गर्वी

    अभागा मध्यवर्गी मन

    सोचता हूँ, आँख की नीली चमक में

    बहुत गर्मी है

    रोशनी में क़त्ल करती एक परवशता,

    मृत्यु के आगे समर्पित

    एकदम नंगा

    बहुत छोटा

    आदमी का अहम्...।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विजप (पृष्ठ 106)
    • रचनाकार : श्याम परमार
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 1967

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