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एक और भीड़

ek aur bheeD

अरविंद यादव

अरविंद यादव

एक और भीड़

अरविंद यादव

और अधिकअरविंद यादव

    आजकल रोज़ अख़बार के सीने पर

    दिखाई दे जाते हैं ऐसे घाव

    जिनको देख एकाएक उतर आता है ज़ेहन में

    वह भयावह मंज़र

    जिसमें दिखाई दे जाती है अनायास

    दौड़ते त्रिशूल तलवारों की भीड़

    और भीड़ से स्वयं को बचाता

    सड़क पर बेतहाशा दौड़ता जीवन

    जिसे दीवारों पर कुहनी टेके

    तमाशबीन की तरह देखतीं खिड़कियाँ

    सड़क के एक छोर से दूसरे छोर तक जाती गलियाँ

    बापू के तीन बंदरों के मानिंद मूर्तिवत चौराहे

    जिनके सामने गिड़गिड़ाता

    मिन्नतें करता

    तथा पत्थरों को पानी की बूँदों प्रहार से

    तोड़ने का असफल प्रयास करता वह जीवन

    जिसे देखकर

    खिड़कियाँ बंद कर लेतीं हैं अपनीं आँखें

    गलियाँ लौट जातीं हैं उल्टे पाँव अपने घरों में

    दुबक जाते हैं चौराहे खोलकर दुकानों के सटर

    जहाँ से देखते हैं वह

    लोकतंत्र को ठेंगा दिखाते उस भीड़तंत्र को

    जिसके जयघोष में दब जाती है वह लंबी चीख़

    दिखाई देतीं हैं तो सिर्फ़

    सड़क पर पड़ीं मृत मानवीय संवेदनाएँ

    जिनकी कोख से जन्मती है

    एक और भीड़

    जो कुचलती है मानव और मानवता को

    दूनी बेरहमी से

    ख़ून से लथपथ सड़कें

    कोपभाजित धधकते घर

    आग उगलते वाहन

    करते हैं बयान जिसकी बर्बरता

    इतना ही नहीं हूटरों के दौड़ने के साथ ही

    संविधान की अस्मिता को संकट में देख

    तिलमिलाकर दौड़ पड़ती हैं उसकी धाराएँ

    बचाने को उसकी अस्मिता

    थामकर हाथों में बंदूक़ें

    गली-नुक्कड़ और चौराहों पर

    फिर जुटाए जाते हैं अनगिनत साक्ष्य

    उन संवेदनशून्य गलियों, खिड़कियों चौराहों से

    जिन्होंने मूकदर्शक बन देखा था वह भयावह मंज़र

    दर्ज किया जाता है उस जगह का इतिहास और भूगोल

    अनगिनत कोरे काग़ज़ों पर

    जो फाँकते रहते हैं धूल न्याय के मंदिरों में।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अरविंद यादव
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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