यह दुनिया जीने के लिए है
भले आप जीना चाहे या नहीं
जैसे कुछ देर को छूटा कोई जानवर
दौड़ लगाता है पूरे दम से
दौड़ता है हर दिशा में
बदहवास-सा, बेचैन होकर
और फिर ख़ुद आकर वहीं खड़ा हो जाता है
ख़ुद को फंदे में डाल लेता है
मान लेता है कि अब ऐसे ही गुज़ारा है
स्वतंत्र होने की चाहत किसमें नहीं होती
कौन नहीं चाहता करना अपने मन की
पर चाहने वाला अपनी चाहत की क़ैद में है
मन की करने वाला अपनी हवस से बाहर नहीं,
पर जो सोचता है
जो स्वतंत्रता को केवल पाने तक सीमित नहीं करता
जो स्वतंत्रता को देखता है अपने अस्तित्व की
आवश्यकता के रूप में
जो संघर्ष करना तो चाहता है
संघर्ष ही स्वतंत्रता का माध्यम है, ऐसा सोचकर
या मानकर
वह सोच में घूमता है
पर ऐसा न समझो,
उसे संघर्ष से डर लगता है
पर संघर्ष का अर्थ ही अज्ञात है
उसकी दिशा ही अनजान है
या फिर अपने दुश्मनों की ही कोई पहचान नहीं
विचारों में जो दुश्मन हैं
ज़मीन पर वे ही जीते-जागते इंसान हैं,
अपनी करनी यदि संघर्ष है
तो उनकी करनी में उनका संघर्ष क्यों नहीं
यदि हम जीवित हैं
तो वे भी जीवित हैं
फिर हममें और उनमें भेद ही कैसा
और
चुप हो जाना पड़ता है
सबको अपने जैसा समझकर
अपनी संवेदना का उनकी संवेदना से मिलान कर
हथियार डाल देना होता है,
शायद जिसे समझदारी कहते हैं
वह चुपचाप बैठकर गीत गुनगुनाने जैसा है
अपनी परतंत्रता पर आँसू बहाने जैसा है
नियति को स्वीकार कर
नियति के चक्र में जकड़ जाने जैसा है
दर्शन के इस दाँव-पेंच में उलझ जाना है
अपनी असीम संभावनाओं को जानकर
फिर दौड़कर और मानकर बैठ जाना है,
तभी तो कहते हैं
दुनिया जीने को है,
भले आप जीना चाहे या नहीं।
- रचनाकार : शशि शेखर
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए अदिति शर्मा द्वारा चयनित
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