दुनिया को बड़ा रखने की कोशिश
असलियत यही है कहते हुए
जब भी मैंने मरना चाहा
ज़िंदगी ने मुझे रोका है।
असलियत यही है कहते हुए
जब भी मैंने जीना चाहा
ज़िंदगी ने मुझे निराश किया।
असलियत कुछ नहीं है कहते हुए
जब भी मैंने विरक्त होना चाहा
मुझे लगा मैं कुछ नहीं हूँ।
मै ही सब कुछ हूँ कहते हुए
जब भी मैंने व्यक्त होना चाहा
दुनिया छोटी पड़ती चली गई
एक बहुत बड़ी महत्त्वाकांक्षा के सामने।
असलियत कहीं और है कहते हुए
जब भी मैंने विश्वासों का सहारा लिया—
लगा यह ख़ाली जगहों और ख़ाली वक़्तों को
और अधिक ख़ाली करने—जैसी चेष्टा थी कि मैं उन्हें
एक ईश्वर-क़द उत्तरकांड से भर सकता हूँ।
मैं कुछ नहीं हूँ कहते हुए
जब भी मैंने छोटा होना चाहा
इस एक तथ्य से बार-बार लज्जित हुआ हूँ।
कि दुनिया में आदमी के छोटेपन से ज़्यादा छोटा
और कुछ नहीं हो सकता।
पराजय यही है कहते हुए
जब भी मैंने विद्रोह किया
और अपने छोटेपन से ऊपर उठना चाहा
मुझे लगा कि अपने को बड़ा रखने की
छोटी से छोटी कोशिश भी
दुनिया को बड़ा रखने की कोशिश है।
- पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 120)
- रचनाकार : कुँवर नारायण
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2008
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