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दुनिया का कोना

duniya ka kona

सुजाता नारायण

अन्य

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सुजाता नारायण

दुनिया का कोना

सुजाता नारायण

और अधिकसुजाता नारायण

    उसको कोने पसंद थे

    वो जहाँ भी जाती वहाँ कोने में

    अपने घर का कोना ढूँढ़ने लगती

    फिर एक दिन उसको किसी ने कहा—

    ये धरती गोल है

    कितने भी मुल्कों से गुज़र लोगी

    फिर भी अंत में वहीं लौटोगी

    जहाँ से निकली थी

    उसने वो बात अपनी अना पे ले ली

    वो कोना ढूँढ़ने दर-दर भटकती रही

    उसको मुल्कों के कोने मिले

    उसने आसमान के कोने देखे

    पहाड़ों के कोने छूए

    समंदर के कोनों में पैर डुबोए

    चलते-चलते उसको लोग मिले

    वो ग़म के कोने में बैठ रोई

    ख़ुशियों के कोने से उसने फूल चुराए

    आतंक के कोने में चोट खाई

    एक बार तो ऐसा हुआ कि

    प्रेम का कोना उसको ज़ोर से टकराया

    वो ख़्वाबों के कोने से उठ गई

    सियासत के बोसीदा कोने में

    उसको अपने पिता की नज़्म दिखी

    नफ़रतों के ग़मगीन कोने में

    उसको अपनी माँ की याद आई

    दुनिया में लाख़ कोने बने थें

    पर दुनिया का कोई कोना नहीं था;

    दुनिया का कोई कोना नहीं था

    इसीलिए दुनिया में लाख़ कोने बने थें

    अंत में वो वहीं आकार लौटी

    जहाँ से निकली थी

    उसके घर का कोना दुनिया का कोना था

    उस कोने में अँधेरा था

    जिसके आगे कुछ नहीं था

    जिसके पीछे दुनिया के कोने थे।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सुजाता नारायण
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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