दुख का घर

dukh ka ghar

अष्टभुजा शुक्‍ल

अष्टभुजा शुक्‍ल

दुख का घर

अष्टभुजा शुक्‍ल

और अधिकअष्टभुजा शुक्‍ल

    दुख भी

    बहुत परेशान है इन दिनों

    हर तीसरे के पास पहुँचना है उसे

    आकाश से लेकर पाताल तक

    उसकी जजमानी है

    कितने फोड़ों में टपकना है उसे

    कितनी आँखों में पत्थर बनकर रहना है

    कितने गलों को करना है वाष्परुद्ध

    ग्रहों और नक्षत्रों की

    आज्ञा सुननी है उसे

    फिर किसी आत्मघाती बम में बैठ कर

    साबुत बच निकल आना है स्वयं

    पानी में आग में अन्न में अस्पताल में सड़क पर

    सब में रहना है बेचारे दुख को

    जहाँ-जहाँ ईश्वर को रहना है

    वहीं-वहीं दुख की तैनाती होनी है

    ईश्वर की तरह ही

    हर ताले की चाबी दुख के पास है

    पता चला

    कि बाहर ताला बंद है

    और भीतर बैठा हुआ है दुख

    सुख पर कोई अभियोग नहीं

    उसके पास काम भी बहुत कम हैं

    वह अति आज्ञाकारी सेवक है

    गिने-चुने लोगों की

    टहल बजानी है उसे

    वैसे नया साल आने पर

    थोड़ी-बहुत भाग-दौड़ करनी पड़ती है

    सुख को भी

    फिर विश्राम ही विश्राम है

    चीज़ों में

    अदृश्य की तरह रहता है दुख

    जबकि सुख दृश्य की तरह

    ग़रीबों के वास्ते बनने ही चाहिए आवास

    वन्यों के लिए अभयारण्य

    नभचरों के लिए पक्षी-विहार

    क्या कोई कृपालु सत्ता

    आएगी ऐसी कभी

    जो दुख के लिए भी बनवा दे एक घर

    रखवा दे कोई गीज़र, ऑयोडेक्स और बाम

    कम से कम रात में तो

    थका-हारा बेचारा दुख

    अपने घर में रहा करे।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अष्टभुजा शुक्ल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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