घर

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अनुवाद : छत्रपाल

यारो रखोगे जब मुझको तुम सब चिता के ऊपर,

यह पोथी संग मेरे रखना है यह मेरा बख्तर

और कहना इस नादां ने तो काम किए बस तीन,

जन्मा, मरा, भेंट कर गया अपनी कविता ‘घर’

1

ले यह भेंट और दे चरणामृत दाता मेरे ठाकुर,

मैं चढ़ावा लेकर आया अपनी कविता 'घर'।

मैं लाया भेंट रुपया ही माँगूँ दौलत,

मेरी भेंट यह लेकर ख़ुद ही बाँट आना घर-घर॥

2

इक टुकड़ा में रोटी माँगूँ सोने को बस नुक्कड़,

इक पल माँगूँ मुस्काने को, इस धरती के ऊपर।

रोने को इक पहर में माँगूँ लोटा एक शराब,

ओक से रह-रह पीड़ा छलके, यही है जीवन घर॥

3

कर ले खर्च कमाई सारी जीवन है नश्वर,

मिट्टी की काया मिलनी है मिट्टी के अंदर।

नहीं रहेंगे गीत-गवइये दौलत आस,

तुझको भी माटी होना है माटी होगा घर॥

4

खाली रूह है तेरी टेढ़े जीने के औज़ार,

सुंदर-सा लिबास पहन ले रंग ले तू वस्त्र।

आँखों को चुँधियाने वाली लौ ज़रा-सी ले ले,

दे अपने अँधियारे तन को झिलझिल करता घर॥

5

जो आया उसको जाना है, पूर्ण कर चक्कर,

इक पल हँसना खीझ घड़ी-भर थोड़ा माल-ओ-ज़र

उसके बाद सूरज होगा, ना होंगे तारे,

कलमुँहे अँधियारे में काँपेगा थर-थर-घर॥

6

आते हमें बुलाते चिट्ठी-पत्तर,

हाल-हवाल पूछें ही लेते कोई ख़बर।

मैं लज्जालु क्या बतलाऊँ, कितनी उनकी चाह,

स्वाद ख़ून का लगा शेरनी भूखी रखी घर॥

7

जीवन तरसाएगा, कुचलेगा कब तक आख़िर,

मैं वियोगी ज़िद है मेरी अड़ियल ज्यों खच्चर।

चाबुक खाऊँ चुभन सहूँ पर ना छोड़ूँ यह ज़िद,

घर बनाने आया हूँ तो, निश्चित बनेगा घर॥

8

प्रीत मचा देती है कैसी आँधी और झक्खड़,

मैं समझूँ प्यार-व्यार को मैं नादाँ अनगढ़।

मुझे बता दो लिखकर कैसे लिखते हैं चिट्ठी,

ख़ुद डाकिया बन कर दूँगा चिट्ठी तेरे घर॥

9

कच्चा धागा प्रीत कह गए रामधन कविवर,

यही सूत जब कसने लगता देता लाख फिकर।

कृपया रामधन जी मुझ को दे दो ऐसी सीख,

अगर बँधी डोर प्रीत की कैसे बनेगा घर॥

10

मत कर निंदा कुंज की यह तो लंबा करे सफ़र,

विश्राम-स्थल की खोज में चाहें थक जाते हैं पर।

ख़ास जगह ही बुने घोंसला, ममता का बंधन,

लंबे सफ़र पे फिर उड़ जाना छोड़ के अपना घर॥

11

जैसे झरने ढूँढ़ें नदियाँ, नदियाँ ढूँढ़ें सर,

जैसे हवा आसमानों में खोजे निज दिलबर।

कोई यहाँ नहीं एकाकी सभी हैं जोड़ीदार,

प्रीत में फिर क्यों मिल पाते तेरे मेरे घर॥

12

कुड़ी वह गाँव बगूने की रूपवती चंचल,

उसके रूप-अनूप पे जाकर अटकी मेरी नज़र।

देख के उसको दिल खिल उठता रखूँ उसको पास,

जब तक जीवन तब तक होगी प्रीत हमारा घर॥

13

मैं पागल था दुनिया ने भी समझा, की ख़ातिर,

मैंने भी सम्मान दिया किया उसका आदर।

देता क्या आदर उसको जो समझे मुझे अकिंचन,

उसकी ख़ातिर क्यों उजाडूँ मैं अपना ही घर॥

14

एक ओर महापुरुष विराजें दुनिया के अंदर,

और दूसरी तरफ़ जुगाली करते बैठ जिनावर।

यह मानुष रस्सी का सेतु इस खाई के ऊपर,

पल भर निश्चित हो पाए कहाँ है उसका घर॥

15

अरे शिकारी मार पंछी इतना ज़ुल्म कर,

फल भीषण है इस गुनाह का लागे तुझे डर।

यह निर्बल, बलवान बलि वह देखे सारे पाप,

हँसता-बसता क्यों उजाड़े तू किसी का घर॥

16

खीझ मेरी अम्मा तू ऐसे रूठा कर,

बतलाता हूँ कहाँ रहा मैं फिरता यूँ आख़िर।

एक गोरैया घर थी बुनती उसको खड़ा हैरान,

रहा देखता देर लगी यूँ मुझे लौटते घर॥

17

किसी ने पूछा कितना अनुभव कितनी तेरी उम्र,

अभी किया लेखा-जोखा हुई बहुत गड़बड़।

मानव उम्र ही गिनता है उस पल जब कि फिर,

कुछ गिनने को बचता है बैठ अकेले घर॥

18

छड़ी बलूत की हाथ में मास्टर जी आते लेकर,

हमने सबक याद किया है हम तो हैं निडर।

घर पहुँचो तो याद रहते मास्टर और स्कूल,

नई ही दुनिया हो जाती है अपना कच्चा घर॥

19

इतराता है क्यों कर जातक मार निरीह कबूतर,

थप्पड़ एक पड़ा तो पल में होश उड़ेंगे फुर्र।

और कहीं आज़माओ ताक़त मत मारो मासूम,

बाहर कहीं जो मिला भेड़िया, जाओगे रोते घर॥

20

यह प्रभात की बेला लौ के अधखुले हैं दर,

आद्य कुँवारी को घूँघट खुलने का रहता डर।

देख मुझे जाने क्या बोली मारे मेरा कंत,

इसीलिए शरमाती आती ऊषा अपने घर॥

21

इक पंडिताइन बाली-विधवा उसका भी था घर,

उसके तन की तपन-जलन अब दूर होती पर।

घर वह उस अभोल का दमघोंटू इक जेल,

तभी कहूँ मैं तोड़ ज़ंजीरें नया बसा ले घर॥

22

दिन चढ़ते ही पंख-पखेरू, मेहनतकश चाकर,

जीने को संघर्ष हैं करते कितने यह दिन-भर।

साँझ ढले जब हो जाते हैं थक कर चकनाचूर

थकन मिटाने दिन-भर की वे वापिस आते घर॥

23

इक दिन मैं दुखियारा पहुँचा शिवजी के मंदिर,

मग्न खड़ा था शिव-अर्चन में इक साधु फक्कड़।

मैं बोला विपता का मारा सीख दीजिए कुछ,

बोला वह, क्यों आए यहाँ पर तेरा मंदिर घर॥

24

प्रीत का मैं देवालय बना कर आया था भीतर,

आशाओं का दीप जला तो प्रीत बनी मंदिर।

पर इक देवी प्रीत की मलिका बोली कर्कश बोल,

ये मंदिर तेरी ख़ातिर ही तेरा घर॥

25

इक ज़िद्दी और चंचल बालक चढ़ा जो पीपल पर,

अम्मा जा तू, ना लौटूँगा साँझ ढले तक घर।

ठोकर लगी जो अनजाने में हुआ वह लहूलुहान,

ज़ोर-ज़ोर से रोते बोला ले चल अम्मा घर॥

['घर' साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत डोगरी काव्य-कृति का हिंदी अनुवाद है।

कुँवर 'वियोगी' ने अपने इस काव्य में शृंगार, नीति, वियोग, व्यंग्य, खंडन, मंडन आदि

विभिन्न कोणों से 238 पदों की रचना की है।]

स्रोत :
  • पुस्तक : घर
  • रचनाकार : कुँवर वियोगी
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2016

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