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चरखा

charkha

केहरि सिंह मधुकर

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और अधिककेहरि सिंह मधुकर

    जिसे कौड़ियों, पूनियों* से;

    सुंदर सजाया था

    दिन रात कूँ ऊँ ऊँ...; करे यह चरखा :

    मुझ

    बाल मन

    बाल तन;

    रोती को माँ ने जब डोली में बैठाया था

    यह चरखा भी मेरे साथ; ससुराल भिजवाया था।

    पीहर की याद मुझे जब-जब आती थी

    साथ इसी के मैं; धीरे-धीरे गाती थी

    सुर में इसके सुर हर मिलाती थी

    बातें भी करके मन बहलाती थी

    कूँ ऊँ ऊँ...; जब चरखा यह गाता था

    लगता था जैसे माँ; लोरियाँ सुनाती है

    कातने का सूत जब गले तक आता था

    लगता था मैया मुझे; गले से लगाती है

    अपने ही हाथों से कातकर; जोड़कर

    सुंदर सा एक; कपड़ा बनाया था

    आत्मज पहला; जब आँचल में आया था

    उसके लिए कुर्ता; इसी रेज़े* से बनाया था

    इसी चरखे ने साथ दिया अहिवात का

    इसी ने ही दुःख में संयोग निभाया था

    सिर पर साथी का साया नहीं रहा जब

    चरखा; यह कातना ही मेरे काम आया था

    इसकी कूँ ऊँ ऊँ...; मेरी साँसों से बँधी है

    शोक जाने इसने; कब तक निभाना है

    जाने कब इसकी यह कूँ ऊँ ऊँ...; रुकेगी

    साँसों की कहानी मेरी जाने कब थमेगी :

    दिन रात कूँ ऊँ ऊँ...; करे यह चरखा...

    *पूनियों : रुईं की बत्तियाँ

    *रेज़ा : कपड़ा

    स्रोत :
    • रचनाकार : केहरि सिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए अनुवादक द्वारा चयनित

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