दो ज्योति

do jyoti

शरच्चंद्र मुक्तिबोध

और अधिकशरच्चंद्र मुक्तिबोध

    दुख सबका है

    आपका है, मेरा है,

    लेकिन दुख की भी होती हैं

    अलग-अलग जातियाँ।

    किसी दुख की लौ होती है काली

    और उसमें से बेचैनी की चिनगारियाँ

    फूटती रहती हैं।

    और सिर्फ़ कालिख़ ही बचती है।

    किसी दुख की लौ होती है लाल

    अँधेरे पर जिसका सिर उठा हुआ

    दिखता है,

    उसमें से चिनगारी की तरह

    सितारे फूटते हैं

    और वे दौड़ते हैं दूर-दूर

    आँखों की पुतलियों में चमकते हैं,

    हज़ारों सालों तक लोग उसकी चर्चा

    करते हैं,

    कहते हैं 'हाँ भाई एक थी ज्योति

    हमने वह देखी थी

    धरती पर ज्योति का अस्तित्व

    है एक हक़ीकत’

    काली ज्योति

    वह तो बस अँधेरे पर

    अँधेरे का शिल्प है;

    हड्डी-हड्डी में वह बुख़ार की तरह

    धुँधवाती है,

    हर आँख में उसका उदास उजाला

    मायूसी उँड़ेलता है

    उसे छुओ तो हाथों में

    लगती है कालिख़

    और तलुए भी हो जाते हैं काले,

    जो अपनी कालिख़-भरी छाप

    धरती पर छोड़ते चलते हैं।

    और इस तरह धीरे-धीरे

    गर्दन ही टूट जाती है।

    घुटनों में भर जाता है उसका असर

    जिससे शब्दों के पंख झर कर टूटते हैं,

    और लाख-लाख पृष्ठों पर गिरते हैं,

    लाल ज्योति :

    दूर से ही दीख पड़ती है

    मुसकराकर सिर उठाती है

    और बादलों पर उभरते हैं नए चित्र,

    आँखें भर आती हैं

    और कुछ बोलकर भी

    सब-कुछ कह दिया जाता है,

    हम महसूस करते हैं, समझते हैं,

    अँधेरे के माथे पर

    स्वर्णिम चरण-चिह्न झलकने लगते हैं।

    काली ज्योति :

    वो तो बस उगलती है शक का धुआँ

    और हर आदमी : अँधेरे में

    दूसरे से कटा हुआ

    बिचारा अकेला पड़ जाता है,

    चिल्लाता है दूसरों पर

    'तुम शत्रु हो, मेरे शत्रु हो'

    यह पुकार, छुरा बनकर

    उसे ही भोंक देती है।

    और वह आदमी

    ख़ुद अपने ही पैरों के पास

    मुरदा होकर गिर पड़ता है।

    लाल ज्योति :

    एक महान उत्तर बनती है

    पहाड़-जैसी बड़ी-बड़ी पुस्तकों के लिए

    कभी पूछे गए व्याकुल प्रश्नों के लिए

    एक महान् उत्तर।

    वह दिखाई देती है

    तो सपनों को मिल जाते हैं पंख

    और रात के पीछे दौड़ने वाले

    तारों की हलचल उनमें भर जाती है।

    बंजर ज़मीन पर

    प्रज्ञा का ट्रैक्टर दौड़ने लगता है

    चिनगारियों के बीज बोए जाते हैं;

    और हमारी आँखें

    सुनहली फ़सलों के सपने देखती हैं।

    काली ज्योति कहती है ‘ठहरो

    तुम्हारे चेहरे पर काले दाग़ हैं।

    पहले उन्हें अपने हाथों से पोंछो'

    लाल ज्योति कहती है 'चलो

    आगे बढ़ो'

    मैं तुम्हारी आँखों में पुतलियों की तरह खड़ी हूँ

    काली ज्योति कहती है 'चूँकि मैं हूँ

    इसीलिए तुम नहीं हो।

    तुम मरोगे

    मरण अवश्यंभावी है

    तुम्हारी हड्डियों में मृत्यु ही बसी है'

    लाल ज्योति कहती है ‘जियो

    क्योंकि तुम्हारे मन की

    अथाह नीली झील में एक दिया है

    इसीलिए तुम मुझे भी देख सकते हो'

    और

    मैं देख रहा हूँ :

    कि अँधेरे की पहाड़ी पर से

    सुनहरी पगडंडियाँ उभर रही हैं,

    शब्द

    गरुड़ की तरह विशाल बनते हैं,

    और उनके पंखों तले

    आसमान भी सिमट आया है,

    चक्की की धुन पर

    भक्ति और आस्था-भरे पद

    अभी भी सुन पड़ते हैं;

    क्योंकि मैंने भी

    ऐसी ही एक ज्योति देखी है

    इसीलिए

    मैं इतना आश्वस्त

    निर्भय और स्वच्छंद हूँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि संकलन कविता मराठी (पृष्ठ 197)
    • रचनाकार : शरच्चंद्र मुक्तिबोध
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
    • संस्करण : 1965

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