दो औरतें
do aurten
वह एक मामूली औरत है
भरे जिस्म पर भारी जेवर पहनती है
जैसे मानचित्र पर एक अँधेरा महाद्वीप
वो रंग प्रिय है, रसीली है उसकी बोली
सभाओं में वो सबसे आगे होती है
पति के मोटे कंधे पर हाथ रखती हुई
इतराती है जैसे सूरजमुखी शाम को मुँह छुपा लेता है
वह किसी गैर-महत्वपूर्ण बात पर
दुर्लभ भाषा इज़ाद कर लेती है
वह विदुषियों से द्वेष करती हैं
वह मामूली एक समाजिक औरत है
जिसके लिए हर सक्षम स्त्री एक सांप है और श्राप भी
वह उसे कुचलना चाहती है
और हर बार बुरी तरह से हार जाती है
उस औरत को नहीं पता है
कला के सप्तम स्वर में बोलने वाली उस स्त्री ने
सबसे पहले लिखी थी कविता
सबसे पहले प्रेम किया था पुरुष से
सर्व गुण संपन्न इन स्त्रियों को पता है
ज़ायके का भी नमक होता है
सम्भोग के चरम पर जब सृष्टि ने
सबसे पहले बंदर से आदमी बनाया
वह उसकी ही माँ है
हीरा और शृंगार प्रसाधन है मंडियों में बिकने वाला सामान
जिसे मामूली औरत पहनती हैं
उस औरत को नहीं पता है कि साँप दूध नहीं पीता है
और वह सदियों से पुरुष के जीवित रहने की प्रार्थना में
गड्ढे वाले ग्रहलोक की तरफ़ मुँह करके
मंत्र पढ़ती रही है!
नकली साँप और पत्थर के बूत पर
दूध और अक्षत चढ़ाती हुई राजा तक्षक से भीख़ माँगती रही है
ताकि उनकी मिल्कियत चलती रहे
वह मालकिन बनी रहें
विदुषी स्त्री को पता है साँप और पत्थर का अंतर
महंगे और सस्ते का फ़र्क़
वह विषैले प्रजाति के समक्ष कभी नतमस्तक नहीं होती हैं
बल्कि लेती है लोहा
ठीक वैसे ही जैसे सोनार लोहे से सोना बना लेता है!
मामूली औरत अब
चाँद पर गड्ढे होने के प्रमाण के बाद
मुँह छिपाए हुए बैठी है!
- रचनाकार : प्रेमा झा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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