धन्य हो प्रभु!

dhany ho prabhu!

रहमान राही

रहमान राही

धन्य हो प्रभु!

रहमान राही

और अधिकरहमान राही

    उसने चारों ओर नज़र दौड़ाई

    भभक रहा था ओर-छोरहीन मरुस्थल

    हज़ारों-लाखों सालों से...लक्ष्यहीन सरोकारहीन

    जब से धधक रही आँधी में अपनी दिशाहीनता समेट रहा है

    गिरगिट को

    अपने होने का हर संभव मर्म आज़माना पड़ा

    उसकी जीभ के धागे पर

    उभर आया काँटा भी

    आग भी जाग पड़ी जठर के साये में—

    काश कि धुंध ही बाधित करती

    बूँद भर कहीं दिप उठती

    कोई कीट कहीं लेता करवट!

    गिरगिट को परखना पड़ा अपना होना अनहोना

    उसने दिशाएँ आँखों में भर ली

    अपने माथे पर उभरे पसीने की नमी आँकी

    जीभ का प्यासा काँटा भिगोया

    अपनी ही दाढ़ों से अपनी केंचुल उतार दी

    और किया आहार

    धन्य हो प्रभु!

    इस अनस्तित्व में कोई अस्तित्व बस रहा है

    किसी को कोई अभाव नहीं खलता।

    स्रोत :
    • पुस्तक : रहमान राही की प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 48)
    • संपादक : गौरीशंकर रैणा
    • रचनाकार : रहमान राही
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2009

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