रामदासचरित

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क्षमा राव

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और अधिकक्षमा राव

    जब तक सूर्य का रथ आकाश में चमकता रहता तब तक वह भक्त

    विष्णु पर पत्र-पुष्पों की वर्षा करता रहता। जिस क्षण में दशरथ की प्रिय रानी

    से रामचन्द्र का जन्म हुआ, उसी में उसकी प्रियतमा ने भी पुत्र-रत्न उत्पन्न

    किया।

    पिता द्वारा अत्यंत कोमल वाणी में संबोधित किए जाने पर भी और

    गुरुजनों द्वारा विनोदपूर्ण वाक्यों से बार-बार खेलाए जाने पर भी वह अपलक

    नेत्रों से स्थिर और स्तब्ध-शरीर होकर अपने परिवार वालों को पहचानते

    हुए चुपचाप खड़े रहे।

    पिता के उपासना-रूपी धन को पूर्ण रूप से अपना बनाने के लिए

    बड़े भाई ने अत्यंत लोभवश मेरा हिस्सा भी छीन लिया। तब मैंने घर से

    निकलकर स्वेच्छा से यह उपासना की तथा श्री राम का दास्य प्राप्त किया।

    इस प्रकार हमारा वंश धन्य हो गया।

    किसी भी संबंधी के ताड़े बिना वर महोदय विवाह की वेदिका से

    चुपचाप खिसक गए और भीड़-भाड़ वाले स्थान में दृष्टि से ओझल हो गए;

    क्षण भर में वह अँधेरे में अपने नगर से भाग निकले।

    माता की आज्ञा प्राप्त करने पर उस तीव्र बुद्धि और वाक्चतुर ब्रह्मचारी

    ने समस्त पृथ्वी को अपना कुटुम्ब समझते हुए पुरश्चरण (जप-यज्ञ) में संलग्न

    होकर अपनी आत्मा को सुखी किया। संसार में महापुरुषों की यह रीति

    चिरकाल से प्रसिद्ध है।

    यदि मेरी वाणी शुभ होने पर भी कहीं निष्फल हो जाए तो यह व्यक्ति

    किस प्रकार जन-जन में श्रद्धा उत्पन्न कर सकेगा? हे दीनों के स्नेही, तुम्हारे

    लिए पृथ्वी पर कुछ भी असाध्य नहीं है। इसलिए हे प्रभु, तुम शीघ्र ही

    अपने भक्त के वचन सत्य कर दो।

    जिस वृक्ष पर बंदर बैठे थे उस पर पुष्प सफ़ेद हुए या लाल?

    इस प्रकार कहने वाले उसको मुनिवर ने बताया कि वे लाल नहीं, सफ़ेद

    हुए हैं।

    वे सफ़ेद नहीं हुए हैं, बल्कि सुंदर बालसूर्य के रंग के समान लाल-लाल

    हैं। इस प्रकार कहते हुए वह बालक मुनि के साथ निरंतर वाक्कलह करता रहा।

    आपके अधिकार को जानते हुए इस व्यक्ति ने यह बड़ा प्रमाद कर

    डाला। अतः हे भगवन्, आप मेरे अपराध को क्षमा कर दीजिए और इस

    शिव-मंदिर में प्रवेश कीजिए।

    भगवान् शिव के मन्दिर में तपस्विश्रेष्ठ के प्रवेश करते ही वह लिंग पुनः

    प्रकाश से जगमगाता हुआ लोगों को दृष्टिगोचर हो गया।

    इतना कहे जाते ही उस आकाश-विहारी पक्षी ने अपने दोनों नरम

    पंख अच्छी तरह फैला लिए और वह स्वच्छंद होकर चहचहाते हुए तुरंत

    आकाश में उड़ गया।

    इस प्रकार जल्दी कहकर तपस्वी ने मनु को जपते हुए ज्यों ही अपने

    मृदु हाथ से माता की आँखों को कोमलता से दो बार छुआ, त्यों ही उस

    तपस्विनी को अपनी दृष्टि प्राप्त हो गई, उसका मुख-कमल हर्ष से खिल उठा

    और उसने अपनी दोनों भुजाओं से उसे लपेट लिया।

    पहाड़ की कन्दरा में अकेले रहने पर भी उनके यश का प्रकाश उसी

    प्रकार फैल गया जिस प्रकार कहीं भी खड़े हरिण की कस्तूरी की सुगंध

    चारों दिशाओं में निरंतर फैलती रहती है।

    नदी से निकली आवाज़ को सुनकर वह प्रसन्न हुए और उन्होंने

    कूदकर पानी में गहरी डुबकी लगाई। वहाँ उन्हें शिला की बनी दो

    मूर्तियाँ मिलीं और फिर वह तट पर बैठकर ऊँचे स्वर में रघुपति की स्तुति

    करने लगे।

    क्षत्रिय पहले स्वयं निपुण बनकर व्यवहार-कर्म का आचरण करे, दुष्ट

    शत्रुओं को हटाकर कुशल एवं विश्वसनीय लोगों को नियुक्त करे, संकट-काल

    में धनी-ग़रीब सबको सम दृष्टि से संतुष्ट करे, शांत और स्थिर आत्मा से

    व्यवहार करे और हृदय में विवेक बनाए रखे।

    तत्पश्चात् उसने, शरीर दुर्बल होने पर भी, हाथ जोड़ लिए। शय्या में

    वह ज़रा भी हिलने-डुलने में समर्थ नहीं थी। इसलिए उस साध्वी ने भगवान्

    रामचन्द्र में ध्यान लगाकर, मानो पति के धाम जाने की इच्छा से, आँखें

    मूँद लीं।

    तदनन्तर उस जन-समूह ने महर्षि की चिरकालीन तपस्या से प्राप्त पहले

    की महाशक्ति पर भली-भाँति विश्वास कर लिया। उन्हें नमस्कार करने

    के कारण वह लज्जित एवं पश्चात्ताप से दुखी हो गया, और हाथ जोड़कर

    नम्रतापूर्वक मुनि के पीछे-पीछे गया।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 551)
    • रचनाकार : क्षमा राव
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1956

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