जलाते चलो ये दीए स्नेह भर-भर
jalate chalo ye diye sneh bhar bhar
द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
Dwarika Prasad Maheshwari

जलाते चलो ये दीए स्नेह भर-भर
jalate chalo ye diye sneh bhar bhar
Dwarika Prasad Maheshwari
द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
और अधिकद्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
जलाते चलो ये दीए स्नेह भर-भर
कभी तो धरा का अँधेरा मिटेगा!
भले शक्ति विज्ञान में है निहित वह
कि जिससे अमावस बने पूर्णिमा-सी,
मगर विश्व पर आज क्यों दिवस ही में
घिरी आ रही है अमावस निशा-सी।
बिना स्नेह विद्युत-दीए जल रहे जो
बुझाओ इन्हें, यों न पथ मिल सकेगा।
जला दीप पहला तुम्हीं ने तिमिर की
चुनौती प्रथम बार स्वीकार की थी।
तिमिर की सरित पार करने, तुम्हीं ने
बना दीप की नाव तैयार की थी।
बहाते चलो नाव तुम वह निरंतर
कभी तो तिमिर का किनारा मिलेगा।
युगों से तुम्हीं ने तिमिर की शिला पर
दीए अनगिनत है निरंतर जलाए
समय साक्षी है कि जलते हुए दीप
अनगिन तुम्हारे, पवन ने बुझाए
मगर बुझ स्वयं ज्योति जो दे गए वे
उसी से तिमिर को उजाला मिलेगा।
दीए और तूफ़ान की यह कहानी
चली आ रही और चलती रहेगी
जली जो प्रथम बार लौ उस दीए की
जली स्वर्ण-सी है, और जलती रहेगी।
रहेगा धरा पर दिया एक भी यदि
कभी तो निशा को सवेरा मिलेगा।
जलाते चलो ये दीए स्नेह भर-भर
कभी तो धरा का अँधेरा मिटेगा!
स्रोत:

- लेखक: द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
-
- प्रकाशक: अमर उजाला काव्य
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