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बलि

bali

अनुवाद : शंकर लाल पुरोहित

देना सीखा है।

क्या माँगना है माँगो

आँख माँगोगे तो दे दूँगा

सारी आयु का सपना

बाहु माँगोगे तो दे दूँगा अपनी प्रजा का बलवीर्य

अलंकार माँगोगे तो दे दूँगा नक्षत्र खचित आकाश,

सुना है तुम माँगने में बहुत कपट करते।

पेड़ से पात एक माँग कर, मुझे पता है,

तुमने माँग लिया मेरा कौमार्य

फूल से मधु माँगा, मुझे पता है

तुमने माँग लिया मेरा अभिषिक्त प्रेम

पाप माँग कर भी, मैं जानता हूँ,

तुमने माँग लिया मेरा कारुण्य।

देना सीखा है, प्रभु, शुरु से,

क्या माँगना है, माँग लेना!

किसी को लौटाया ख़ाली हाथ, सुना है?।

एक दिन पवन ने माँगी मेरी साँस

एक दिन चाँद ने माँगा मेरा यौवन

एक दिन धरती ने माँगा मेरा शोणित

एक दिन चांडाल ने माँगा मेरा राजपद

सबको दिया उनके मन-मुताबिक।

शोक माँगोगे यदि तुम

पाँव पकड़ कहुँगा ले लो;

पर याद रखना

ख़ूब हारा हूँ अपने आगे

और मधुमक्खी-सा अपने अहंकार में

ख़ूब एकाकी, चिरकाल एकाकी।

एकाकी खड़े होकर तिरस्कार किया

अपनी भावना को

निशीथ में सुना है।

कोई पुकार रहा।

कौन? ओस की बूँद माँगता देखो,

आँसू झलमल आँख में

वह चाहता दीर्घतम जीवन

वह चाहता धरती की सारी दूब

घर की मथानी पर

अभिषिक्ति होगा—

मैंने उसे दी सूर्यहीन जीवंत भोर।

कौन? पंख-कटा पक्षी माँगता संगी,

उसकी ख़ूब इच्छा

गीत उसका होगा मलय पवन-सा

मैंने उसे दी मधुर विहंगी।

मेरे हाथ ख़ाली हैं

सर्वस्व देना सीखा है।

यदि माँगना है तुम्हें, माँग लो।

पहली माँग में माँगोगे पृथ्वी

मैं हाथ बढ़ाकर सौंप दूँगा।

दूसरी माँग में माँगोगे आकाश

मैं समर्पण कर दूँगा सारा विश्वास।

तीसरे पग में तुम्हारी नाभि से आए पग तो

तो भी प्रस्तुत हूँ

तीसरी माँग से समर्पित कर दूँगा उन्नत मस्तक।

देना सीखा है।

क्या माँगना है

माँग लो।

स्रोत :
  • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 319)
  • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
  • रचनाकार : सुनील कुमार पृष्टि
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2009

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