कभी सोचा है

kabhi socha hai

ओमप्रकाश वाल्मीकि

ओमप्रकाश वाल्मीकि

कभी सोचा है

ओमप्रकाश वाल्मीकि

और अधिकओमप्रकाश वाल्मीकि

    तुम महान हो,

    तुम्हारी जिह्वा से निकला

    हर शब्द पवित्र है—

    मान बैठा था मैं।

    तुमने पढ़ रखी हैं

    ढेरों पुस्तकें

    आता है दुहराना शब्दों को

    बदलना अर्थों को।

    सहिष्णुता तुम्हारी पहचान है।

    वर्ण-व्यवस्था को तुम कहते हो आदर्श

    ख़ुश हो जाते हो

    साम्यवाद की हार पर।

    जब टूटता है रूस

    तो तुम्हारा सीना 36 हो जाता है

    क्योंकि मार्क्सवादियों ने

    छिनाल बना दिया है

    तुम्हारी संस्कृति को।

    हाँ, सचमुच तुम सहिष्णु हो

    जब दंगों में मारे जाते हैं

    अब्दुल और क़ासिम

    कल्लू और बिरजू

    तब तुम सत्यनारायण की कथा सुनते हुए

    भूल जाते हो अख़बार पढ़ना।

    पूजते हो गांधी के हत्यारे को

    तोड़ते हो इबादतगाह झुंड बनाकर।

    कभी सोचा है

    गंदे नाले के किनारे बसे

    वर्ण-व्यवस्था के मारे लोग

    इस तरह क्यों जीते हैं?

    तुम पराए क्यों लगते हो उन्हें

    कभी सोचा है?

    स्रोत :
    • पुस्तक : दलित निर्वाचित कविताएँ (पृष्ठ 68)
    • संपादक : कँवल भारती
    • रचनाकार : ओमप्रकाश वाल्मीकि
    • प्रकाशन : इतिहासबोध प्रकाशन
    • संस्करण : 2006

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