कविता के मुक्तिबोधों का समय नहीं यह

kawita ke muktibodhon ka samay nahin ye

सुंदर चंद ठाकुर

सुंदर चंद ठाकुर

कविता के मुक्तिबोधों का समय नहीं यह

सुंदर चंद ठाकुर

और अधिकसुंदर चंद ठाकुर

    रोचक तथ्य

    इस कविता के लिए कवि को भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त हुआ।

    मैं चीज़ों का ज़िक्र नहीं

    उनकी रूह उकेरना चाहता हूँ

    मेरे पास बहुत पुराने हैं औज़ार

    बहुत पुराने शब्द भाषा और विचार

    मसलन मेरे पास एक आदिम सुबह है

    जिसे मैं अँधेरे के मुहाने पर बिछा सकता हूँ

    थकान और उदासी के धूसर कैनवास पर

    खींच सकता हूँ एक चिड़िया की उड़ान

    उम्मीद नामक प्राचीनतम ईंधन के सहारे

    दुर्दिनों में भी बचा सकता हूँ इच्छाएँ

    मेरे पास एक सभ्यता की स्मृति है

    पैग़म्बरों-धर्मग्रंथों की बातें

    क्रांतिकारी दार्शनिकों के कालजयी विचार

    उत्तर-आधुनिक समझ से लैस

    मैं एक मामूली घटना का

    सूक्ष्मतम कर सकता हूँ विश्लेषण

    बुद्धि के समकालीन सूरमा जिसमें दम तोड़ सकते हैं

    तर्क-वितर्क का ऐसा चक्रव्यूह रच सकता हूँ

    आश्चर्य कि फिर भी खुल नहीं पाती हैं चीज़ें

    प्रेम के रुपहले में अव्यक्त रहता है उसका यथार्थ

    एक क़तरा आँसू के सम्मुख नतमस्तक हो जाती है क़लम की तलवार

    एक मृत्यु का शोक एक हत्या का विध्वंस

    एक कलाकृति की सुंदरता एक व्यक्ति का अपनापन

    एक चेहरे की रेखाओं में धँसा जीवन का अगाध स्वाद

    दस नरकों की पीड़ाएँ झेलने को तैयार करता

    भविष्य के घुप अज्ञात में झिलमिलाता अप्रत्याशित कोई सुख

    कितना कुछ है जो खुलता ही नहीं

    चारों तरफ़ शब्दों के खोल पड़े हैं

    उनकी व्यथा शरीर के हवामहल में गूँजती रहती है

    सब कुछ ठस्स भरा हुआ शरीर में

    दुनिया को ठेलती आगे

    बाहर उड़ती है एक चिथड़ी भाषा

    क्या कहूँ कैसे कहूँ किससे कहूँ

    धर्म को धर्म पुलिस को पुलिस नहीं लिख सकता

    धोखा लगता है न्याय को न्याय लिखना

    दुर्घटना को कहना दुर्घटना

    घटनाअं की प्रचुरता में निमग्न है संसार

    चीज़ें जितनी अधिक उतनी महत्त्वहीन

    सब कुछ अपने विलोम में खोजता अस्तित्व

    पूरब पश्चिम का सूर्यास्त चूमता है पश्चिम पूरब की लाली

    बुद्धि मूर्खता के कोटर में सुरक्षित बैठी है

    अत्याचारी धर्म के उपदेश देता है

    ईश्वर अधर्मियों का सबसे बड़ा नेता है

    एक सरल रेखा खींचते हुए मेरे हाथ काँपते हैं

    फूल के बारे में सोचते ही हाथों में काँटे उग आते हैं

    बचे-खुचे आलोचक हंटर फटकारते हैं

    वे मंचासीन कहते हैं : कविता के मुक्तिबोधों का समय नहीं यह

    कविता में सरलता की ज़बरदस्त माँग है

    क्रोध, क्रंदन और अतृप्त कामनाओं की बूचड़ आँधी में घायल

    मैं हर शब्द के लिए खोजता हूँ कोई विशेषण

    दृष्टि के परदे पर हज़ारों वर्चुअल प्रतिबिंब गिरते हैं

    शब्दों की पकड़ में आने को इनकार करता

    एक लहूलुहान क्रौंच पक्षी

    छटपटाता रहता है मेरे भीतर?

    स्रोत :
    • पुस्तक : उर्वर प्रदेश (पृष्ठ 277)
    • संपादक : अन्विता अब्बी
    • रचनाकार : सुंदर चंद ठाकुर
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2010

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए