दंगे के बाद
वीरान गली का आख़िरी सिरा
एक जूता उल्टा रखा हुआ है
दूसरे के फीते अब तक बँधे हैं
हालाँकि उसका पैर ग़ायब है
सबसे चमकीली धूप में
चमक रही है वीरानी
पत्थरों पर धूल चमक रही है
पत्ते चमक रहे हैं
उम्मीद भरी आँखों की तरह
सुस्त बैठा है एक कुत्ता
जैसे समय के पार चला गया हो
यह टूटा पहिया घूम रहा था
उसके माथे पर बिंदी की तरह
चिपकी है लेमनचूस की पन्नी
लेकिन अब वह तुड़ा-मुड़ा पड़ा है
उस पर रेंग रहा एक कीड़ा उलट गया है
दबी हुई पीली घास पर
सुख चुके ख़ून के धब्बों को
इतिहास की मिट्टी में मिला दिया जाएगा।
कहीं कोई धुआँ नहीं उठ रहा
कोई शोर, कोई चीख़ नहीं
घटनाएँ, स्मृतियाँ, इतिहास तमाम पहिए
रुक गए हैं
कोई रेंगती हुई चीटी भी नहीं, इस वक़्त
नाली में हहराता पुरातन जल भी विलुप्त हो गया है
दो ध्वनियों के बीच की ख़ामोशी फ़ैल गई है
ब्रह्मांड की तरह
देखने और सोचने के बीच के सारे तंतु कट चुके हैं
गली के आसमान पर एक चिड़िया उड़कर आई
एक फेरा लगाकर वह और तेज़ उड़ जाती है
सब कुछ हिलने के नियम के विरुद्ध
अचानक वह कुत्ता
अपने कंधे झाड़ते हुए चलने को होता है
वह रोता है आख़िरी मनुष्य की तरह
घड़ी में बारह बज रहे हैं
तारीख़ की करवटों के पार एक लाश
अभी उठकर चल देगी किसी और गली में।
- रचनाकार : अच्युतानंद मिश्र
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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