धान की पोरों में

dhaan ki poron mein

चंचला पाठक

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धान की पोरों में

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और अधिकचंचला पाठक

    धान की पोरों में

    समा रहा मल्हार...

    उतर रही अमृतमयी वीणा

    पोसेगी अक्षर-अक्षर में प्राण

    हर कंठ की काकली में किलक रहा आस्वाद

    कलरव किर्र-किर्र कह-कह कल-कल से

    पट गई है वसुंधरा

    मृदंग बजाते बादलों में मची है होड़

    हवाओं पर डोलते उड़ते झुमर पारते

    सघन मेघ हो रहे लयबद्ध

    कृष्णातुर वैष्णव ज्यूँ बजाते हैं

    पखावज भाव-विभोर...

    नृत्य निरत...

    स्मृति विगत...

    उद्भट दामिनी—

    उतरती है ऐसे लपककर

    धरती की ओर—

    उत्तरीय लोमता हो ज्यूँ

    वलयवर्त हो चैतन्य महाप्रभु की गात

    रतिरत पुमान्-स्त्री पर हिरण्यमई पटुका का छंद

    उतरता है सप्त-स्वरों का वितान ताने ज्यूँ

    पगडंडियों की पोर पोर उद्भ्राँत है

    कामिनी की पदचापों से कि

    अभी तो हुआ भी नहीं धान्य बीजों का परिपाक

    बजता क्या है रुनझुन-रुनझुन

    परिहासों में विराज रहा परमहंस

    रटपट-रटपट बूँदों की तेज बौछार पर

    मृगछौनों-सी कुलाँचे मारती स्त्रियों ने ही

    सबसे पहले किया होगा इस पृथ्वी को चलायमान

    और मल्हार भी झरा होगा इन्हीं की नाभिका के अनहद से

    किसी मेढ़ पर बैठी स्त्री भींग रही वर्षा जल में

    निहार रही धान की हरीतिमा

    भर रही गाभों में मृदुरस

    पगडंडी सिहर रही हर बूँद के स्पर्श से

    यह एकालाप उतर रहा उसके मौन के ही परिसर मे

    मल्हार के विस्तार में

    इसी स्त्री ने रोपे हैं धान्य बीज

    हर कंठ में आस्वाद के आलाप में

    इसी के मौन की प्रस्तावना है

    दोनों भुजाएँ पसार

    यही कर रही अभ्यर्थना कि

    धान की पोर पोर में

    समा रहा मल्हार

    उतर रही अमृतमई वीणा...

    स्रोत :
    • रचनाकार : चंचला पाठक
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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