छितिता

chhitita

कुमार वीरेंद्र

और अधिककुमार वीरेंद्र

    मेरे पास कोई काम नहीं था

    और ढूँढते-ढूँढ़ते थक गया था

    ऐसे में तुम्हारा जन्म होना था

    मुंबई जैसे शहर में

    दिमाग़ काम नहीं कर रहा था

    अपनों के चेहरों से नक़ाब हट गए थे

    कि तुम्हारी बहन और उस माँ को लेकर

    जाने कहाँ जाना पड़े

    जिसके अंदर तुम एक आकार ले रही थी

    तुम्हारी माँ ज़िद पर अड़ी थी

    इसी शहर में जीना है मरना है

    गाँव वापस नहीं जाना है

    और मुझमें हिम्मत नहीं थी इतनी

    जिनके नहीं चुकाए पैसे

    उनसे और लूँ

    किसी से यह कहते भी बना

    कि धरती पर कोई पग धरने वाला है

    गूँजने को हैं किलकारियाँ

    एक और मुस्कुराहट खिलने वाली है

    नींद में एक और स्वप्न जागने वाला है

    विस्तृत होने वाली है मातृभूमि

    कि स्पर्श करने वाले कम थे

    तीर चलाने वाले ज़्यादा

    और मैं नहीं चाहता था

    तुम्हारे आने की ख़ुशी में

    समय की देह पर इस तरह की खरोंचें हों

    इस जहान में सबसे निकम्मा बाप हूँ

    दीन और अपाहिज

    ऐसा लगता था

    फिर भी जन्म तय था

    कि मेरे टूटने का मतलब था

    उस एक छोटे-से परिवार को खो देना

    जिसका एक अंग तुम भी बन चुकी थी

    भले ही म्युनिसिपालिटी अस्पताल में

    तुम्हारा पहला रोना सुनना था

    लेकिन सुनना था

    कि मैं यह कैसे चाह सकता था

    कि तुम्हारी हत्या हो

    तुमसे भी तो साँस लेनी थी

    मुझे इसी संसार में जीना है

    तो तुम्हें मिटाकर क्या समेटता

    जो तुम्हारी माँ और बहन को चूमता

    उन्हें चूमते तुम भी तो याद आती

    फिर ऐसी यादें ले कैसे जीता

    लिखता काग़ज़ पर कौन-से शब्द

    ऐसा जीना भी तो नहीं आता

    लिखना तो और नहीं मालूम

    तुम वह मिट्टी हो

    जिससे घर बनता है

    डाली हो वह जिस पर फल-फूल लगते हैं

    वह नदी जिसमें गति होती है

    राग वह जिसकी ज़ुबान होती है

    मेरे नए शब्द की नई छितिता

    तुम सिर्फ़ मेरी बेटी नहीं रह गई थी

    तुम किसी की सिर्फ़ बेटी नहीं हो सकती थी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विलाप नहीं (पृष्ठ 133)
    • रचनाकार : कुमार वीरेंद्र
    • प्रकाशन : मेधा बुक्स
    • संस्करण : 2005

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