चार कमरों का घर

chaar kamron ka ghar

उमाशंकर पंडा

उमाशंकर पंडा

चार कमरों का घर

उमाशंकर पंडा

और अधिकउमाशंकर पंडा

    पवन हाथ थाम लेता पवन का

    सुने एक कमरे से दूसरे कमरे तक।

    अलिखित भाग्य की मकड़ी

    बुनती जा रही नूतन जाल।

    सब जगह केवल

    सनसनाती हवा में हाहाकार पत्तों का

    अरण्य के पत्ते जल रहे आग में

    चारों ओर चिरायंध

    शब्द, जली लकड़ी और समय की।

    सूने नदी किनारे

    बँधी नाव में

    नाव या डाँड नहीं।

    नदी में भी पानी नहीं।

    केवल अजीब फ़सल भरा

    धू-धू बालू का रहस्य चार कमरों का मकान।

    एक कमरे में

    गड़े हैं स्वप्न।

    और सीप के कलाकरीमय भंगुर

    काँच के ग्लास। अंगूरी सुन।

    ड्रैगन के चित्र वाले सफ़ेद सादे प्लेट,

    फ़्लास्क और फूलदान

    सफ़ेद काँच की गुटकी खेलती

    छोटी बाला के हाथ और

    अलता लगे पाँव के चिह्न चारों ओर।

    बीच में केवल सूनी सजी टेबुल

    अतिथि-अभ्यागत कोई नहीं

    इधर-उधर केवल गंदे रुमाल

    और बासी फूल।

    अचानक कहीं चले गए वे।

    सूनी नदी नील उपत्यका की ओर

    अथवा भोर के सूने अरण्य की ओर।

    दूसरे कमरे की काई लगी दीवार पर

    पिकासो, आरारा औप वेन गॉग के

    चित्रपट-से अनेक सूरजमुखी और

    तितलियों के चित्र।

    अजीब आलोक, आश्चर्यजनक अँधेरा

    और अनजान चेहरों की भीड़ चारों ओर।

    परित्यक्त्त नाव के जर्जर सिरे पर

    चप-चपाते पाँव पसार

    हँसमुख लड़की बैठी तो बैठी है

    सुबह से शाम तक।

    खो गई मृत नदी घोंघे में।

    आख़िरी कमरा भी सुनसान

    मकड़-जाले का रहस्यमय शरीर

    क़ब्र पर कुछेक फूल, जली धूपबत्ती।

    शायद कभी तुम्हारी

    निरीह हँसी से किरच भर झर जाए

    और वहाँ जादुई दीवार बन जाए।

    घर की चारदीवार का अकेलापन।

    घर चार कमरों का घर।

    जो घर होता

    तुम्हारा या मेरा

    या अनमिट सुख-दुःख का।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 116)
    • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
    • रचनाकार : उमाशंकर पंडा
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2009

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