रात में डूबा लोकतंत्र और वे
raat mein Duba loktantr aur we
वे आ गए
हाथों में बर्छी
रिवॉल्वर
नंगी तलवारें
कट्टे लिए
राजनीति के अलंबरदारों से भरी जीप गाड़ी
होंडा, मारुति, फ़िएट, एंबेसडर
आते ही सीढ़ियाँ लें
चुनावी नारों से पटी दीवारों से
पोस्टर उतारना आरंभ कर देते
उछलते, गीत गाते, ढोल बजाते
उनमें नायक से खलनायक सभी होते
वे चंबल, भिंड, मुरैना के बीहड़ों की
पैदाइश न होते,
प्रतिक्रियाओं के बीच जन्मे, पले
महानगरीय संस्कृति के मुखौटे होते
उनका शोर सुनकर
घरों में माताओं के स्तन मुँह में डाले
बच्चे चौंक उठते
पिता खिड़की पकड़ते
साँकल, सिटकनी को देखते
कमज़ोर दरवाज़ों को छूकर
उनकी ताक़त का एहसास करते
उनके आने पर जाग हो जाती
कुत्ते सतर्क हो उठते
और आदमी
अपने-अपने कटघरों में
अपनी-अपनी धड़कनों को ही
सुनने का प्रयास करते
रात में डूबा लोकतंत्र और वे
वे यानी
लोकतंत्र के सीने पर
दस्तक देने वाले
चुनावी त्योहार के दिन हमलावर बनकर
सारे देश में बिखर जाते
भाले और नेज़े लिए
कहीं हलाकू और चंगेज़ ख़ाँ में बदल जाते
उनके नाम अलग-अलग होते
रंग
रूप
पोशाक
कपड़े
धर्म
जाति
भाषा
क्षेत्र
पर चुनाव के दिन
वे सभी एक हो जाते
जैसे किसी युद्ध के मैदान में
जीतने, समेटने, भोगने को आतुर
दूसरी और मूक, ग़रीब, दलित, आदिवासी होते
विवाह की इंतज़ार में बुढ़ाती लड़कियों जैसे
लोकतंत्र को सीने से चिपकाए
मत से सम्मत का रिश्ता जोड़ते।
- पुस्तक : दलित निर्वाचित कविताएँ (पृष्ठ 113)
- संपादक : कँवल भारती
- रचनाकार : मोहनदास नैमिशराय
- प्रकाशन : इतिहासबोध प्रकाशन
- संस्करण : 2006
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