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बस, मैं रह जाऊँ

bus, main rah jaun

नीलाभ अश्क

अन्य

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नीलाभ अश्क

बस, मैं रह जाऊँ

नीलाभ अश्क

और अधिकनीलाभ अश्क

    भागे जा रहे हैं लोग

    गठरियाँ उठाए, जेब में रखे पैसों,

    परिचय-पत्रों और प्रतिभूतियों को सँभालते,

    नाक की सीध में देखते,

    अपने-अपने कम्प्यूटरों पर

    लगाते हुए आने वाली दुनिया का हिसाब

    अजीब हड़बड़ है

    किसी को होश नहीं है दूसरे का

    ज़रा-सी रुकावट पड़ते ही कुहनियों से

    ठेला-ठाली शुरू हो जाती है

    चिंता बस इतनी है कि पार हो जाएँ किसी तरह

    बीसवीं सदी की वैतरणी जो पीछे छूट जाएँ

    दहेज और दौलत और दमन की बलि-वेदी पर

    तो उनका भाग्य

    सुहृद सहयात्रियो,

    क्या ऐसा नहीं हो सकता

    चली जाए इक्कीसवीं सदी में सारी दुनिया

    गाती-बजाती, शोर मचाती, एक-दूसरे पर गिरती-पड़ती

    बस, मैं रह जाऊँ अपनी इस बेचारी, बेग़ैरत, बेरहम,

    बीसवीं सदी में।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कुल जमा-3 (पृष्ठ 34)
    • रचनाकार : नीलाभ
    • प्रकाशन : शब्द प्रकाशन
    • संस्करण : 2012

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