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इन्या झील की नौका

inya jheel ki nauka

अनुवाद : दिनेश चमोला

मिं: तु वुं

मिं: तु वुं

इन्या झील की नौका

मिं: तु वुं

और अधिकमिं: तु वुं

    थक पक

    थप-थप

    गिरती है वर्षा

    झन-झन-झन

    उठती है लहरें

    झील है एक रज़ाई

    जिसमें महकते हैं आदर्श

    एकाएक आती है चीख़

    वर्षा के तिरछेपन को पार कर

    होती है ओलावृष्टि

    पानी का बहाव लहराता है

    एक मीनार की तरह

    दौड़ते हैं सफ़ेद घोड़े

    शिखाओं के तोरण

    इठलाती हैं मुर्ग़ों की गर्दनें

    गुनगुनाती हैं चोंचें

    वे मुड़ती हैं घूमती हैं

    लहरों की पाँतें उछलती हैं

    फिर कहीं खो जाती हैं

    बेतरतीब

    जैसे कि रख लिया हो

    किसी हरी-भरी आत्मा ने

    वन के पेड़ काँपते हैं

    दुर्बलता से पृष्ठभूमि में

    दर्द की प्रकोष्ठ में

    उतरते हैं तूफ़ानी बादल

    उठाते हैं झील का चेहरा

    मनहूस घृणा से

    कपड़े की डोर-सी बर्फ़

    पतली फेंकी हुई

    पंक्ति की तरह

    मैं विचरण करना चाहता हूँ

    उन सुंदर द्वीपों में

    अदृश्य हो उठती है

    एक धुँधली छाया-सी

    कोई नाव

    एक नौका...नौका

    नौका... मैं चिल्लाता हूँ

    स्रोत :
    • पुस्तक : समकालीन बर्मी कविताएँ (पृष्ठ 59)
    • संपादक : चन्द्र प्रकाश प्रभाकर 'मौतीरि'
    • रचनाकार : मिं: तु वुं
    • प्रकाशन : इरावदी प्रकाशन, नई दिल्ली
    • संस्करण : 1994

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