बुराई के पक्ष में

burai ke paksh mein

हरे प्रकाश उपाध्याय

हरे प्रकाश उपाध्याय

बुराई के पक्ष में

हरे प्रकाश उपाध्याय

और अधिकहरे प्रकाश उपाध्याय

    कृपया बुरा मानें

    इसे बुरे समय का प्रभाव तो क़तई नहीं

    दरअसल यह शाश्वत हक़ीक़त है

    कि काम नहीं आई

    बुरे वक़्त में अच्छाइयाँ

    धरे रह गए नीति-वचन-उपदेश

    सारी अच्छी चीज़ें पड़ गईं ओछी

    ईमानदारी की बात यह कि बुरी चीज़ें

    बुरे लोग, बुरी बातें और बुरे दोस्तों ने बचाईं जान अक्सर

    उँगली थामकर उठाया साहस दिया

    अच्छी चीज़ों और अच्छे लोगों और अच्छे रास्तों ने बुरे समय में

    अक्सर साथ छोड़ दिया

    बचपन से ही

    काम आती रही बुराइयाँ

    बुरी माँओं ने पिलाया हमें अपना दूध

    थोड़ा-बहुत अपने बच्चों से चुराकर

    बुरे मर्दों ने ख़रीदी हमारे लिए अच्छी क़मीज़ें

    मेले-हाटों के लिए दिया जेब-ख़र्च

    गली के हरामज़ादे कहे गए वे छोकरे

    जिन्होंने बात-बात पर गाली-गलौज

    और मारपीट से ही किया हमारा स्वागत

    उन्होंने भगाया हमारे भीतर का लिजलिजापन

    और किया बाहर से दृढ़

    हमें नपुंसक होने से बचाया

    बददिमाग़ और बुरे माने गए साथियों ने

    सिखाया लड़ना और अड़ना

    बुरे लोगों ने पढ़ाया

    ज़िंदगी का व्यावहारिक पाठ

    जो हर चक्रव्यूह में आया काम हमारे

    हमारी परेशानियों ने

    किया संगठित हमें

    सच ने नहीं, झूठ ने दिया संबल

    जब थक गए पाँव

    झूठ बोलकर हमने माँगी मदद जो मिली

    झूठे कहलाए बाद में

    झूठ ने किया पहले काम आसान

    आत्महत्या से बचाया हमें उन छोरियों के प्रेम ने

    जो बुरी मानी गईं अकसर

    हमारे समाज ने बदचलन कहा जिन्हें

    बुरी स्त्रियों और सबसे सतही मुंबइया फ़िल्मों ने

    सिखाया करना प्रेम

    बुरे गुरुओं ने सिखाया

    लिखना सच्चे-प्रेमपत्र

    दो कौड़ी के लेमनचूस के लालच में पड़ जाने वाले लौंडों ने

    पहुँचाया उन प्रेम-पत्रों को

    सही मुक़ाम तक

    जब परेशानी, अभाव, भागमभाग

    और बदबूदार पसीने ने घेरा हमें

    छोड़ दिया गोरी चमड़ी वाली उन ख़ुशबूदार प्रेमिकाओं ने साथ

    बुरी औरतों ने थामा ऐसे वक़्त में हाथ

    हमें अराजक और कुंठित होने से बचाया

    हमारी कामनाओं को किया तृप्त

    बुरी शराब ने साथ दिया बुरे दिनों में

    उबारा हमें घोर अवसाद से

    स्वाभिमान और हिम्मत की शमा जलाई

    हमारे भीतर के अँधेरों में

    दो कौड़ी की बीड़ियों को फूँकते हुए

    चढ़े हम पहाड़ जैसे जीवन की ऊँचाई

    गंदे नालों और नदियों का पानी का आया वक़्त पर

    बोतलों में बंद महँगे मिनरल वाटर नहीं

    भूख से तड़पते लोगों के काम आए

    बुरे भोजन

    कूड़े पर सड़ते फल और सब्ज़ियाँ

    सबसे सस्ते गाजर और टमाटर

    हमारे एकाकीपन को दूर किया

    बैठे-ठाले लोगों ने

    गपोड़ियों ने बचाया संवाद और हास्य

    निरंतर आत्मकेंद्रित और नीरस होती दुनिया में

    और जल्दी ही भुला देने के इस दौर में

    मुझे मेरी बुराइयों को लेकर ही

    शिद्दत से याद करते हैं उस क़स्बे के लोग

    जहाँ से भागकर आया हूँ दिल्ली!

    स्रोत :
    • रचनाकार : हरे प्रकाश उपाध्याय
    • प्रकाशन : हिंदी समय

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